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उक्तं च
नियमसार- प्राभृतम्
भुखान्तर्वन्दा रोहुंकाराद्यथ वदुरो ध्वनिनान्येषां स्वेनच्छावयतो
मूको
तहि कथं मानस क्रिया घटते ?
कुर्वतः । ध्वनीन् ॥
सत्यमेतत्, परंतु इमे द्वात्रिंशदपि दोषा व्यवहारदेववन्दनाया एव न च निश्चय देववन्दनायास्ततो नैष दोषो ध्यानस्थयोगिनाम् । किञ्च तत्र चैत्यभक्त्यादिपाठस्य पठनमेव नास्ति ।
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४४९.
गुणस्थानवर्तिनो द्वात्रिंशदोषविरहितां वन्दनां कुर्वन्सि, सप्तमगुणस्थानवर्तिनो मानस क्रियामपि कुर्वन्ति तत उपरि अंतर्जल्पमपि विहाय केवलं निविकल्पव्याने तिष्ठन्ति इति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायामन्यवार्तालापादिक्रियां मुक्त्वा मौनतपूर्वक सूत्रोक्तपाठं पठन्तोऽपि साधवः षडावश्यक क्रियां विदध्युः ॥ १५६॥
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१. अनगारधर्मामृत अ० ८, श्लोक ११० ।
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जैसा कि --
वंदना करने वाला यदि मुख के अंदर ही शब्द रखे और हुंकार आदि करता हुआ वंदना करे, तो उसके मूक दोष होता है । जो अपने शब्दों से दूसरों के शब्दों को दबाता हुआ वंदना करे, तो दर्दुर दोष होता है ।
यदि ऐसा है तो मानसिक क्रियायें कैसे घटेंगी ?
समाधान ---- आपका कहना सत्य है, फिर भी ये बत्तीसों दोष व्यवहार देववंदना के ही हैं, न कि निश्चय देववंदना के । इसलिये ध्यानस्थ योगियों के लिये यह कोई दोष नहीं है । अर्थात् वहाँ ध्यान में चैत्य भक्ति आदि पाठ का पढ़ना ही नहीं है ।
छठे गुणस्थानवर्ती साधु बत्तीस दोष रहित वंदना करते हैं। सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि मानसिक क्रिया को करते । इसके ऊपर अंतर्जरूप को भी छोड़कर केवल निर्विकल्प ध्यान में ठहरते हैं। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में अन्य वार्तालाप आदि क्रिया को छोड़कर मौनव्रतपूर्वक सूत्रोक्त पाठ को पढ़ते हुए भी साधुगण अपनी छह आवश्यकों को करते रहें ॥ १५५ ॥