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नियमसार-प्राभृतम्
१७ अतोऽध्यात्मरूपनिर्विकल्पपरमसमाधिध्यानं ध्येयं कृत्वा भवद्भिः साधुभिः व्यवहारषHध्यानमवलम्ब्य शुभप्रवृत्तिविधातव्याऽहनिशम् ॥१५४॥
पुनरपि योगिनमावश्यकं प्रति प्रेरयन्त्याचार्यवर्याःजिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं। मोणव्वएण जोई, णियकज्जं साहये णिच्चं ॥१५५॥
जिणकहियपरमसुत्ते-जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतविव्यध्वनिश्रवणधारणस - मर्थगौतमस्वामिग्नथिताचारांगसूत्रे यतिप्रतिक्रमणसूत्रे वा, फुडं पडिकमणादिय परीक्खऊण-स्फुटं प्रतिक्रमणादिक्रियां परीक्ष्य निर्णीयावबद्धय वा । जोई मोणन्वएणयोगी मुनिः मौनव्रतेन जनैः सह वार्तालापं त्यक्त्वा, णिच्चं रणयकज्ज साहये-नित्यमनवरतं निजकार्य ज्ञानदर्शनसुखबीयस्वरूपं शुद्धात्मानं साधयेत् ।
तथा—समताचतुविशतिस्तववन्दनाप्रतिक्रमणयेनयिककृतिकर्मादिचतुर्दश -
इसलिये अध्यात्म ध्यानस्वरूप निर्विकल्प परमसमाधिरूप ध्यान को ध्येय बना कर आप सभी साधुओं को व्यवहार धर्मध्यान का अवलंबन लेकर हमेशा शुभ प्रवृत्ति करते रहना चाहिये ॥१५४।।
पुनरपि आचार्यवर्य योगियों को आवश्यक के प्रति प्रेरणा दे रहे हैं--
अन्वयार्थ-(जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय फुडं परीक्खऊण) जिनेन्द्रदेव कथित परम सूत्र में प्रतिक्रमण आदि को अच्छी तरह समझ कर (जोई मोणव्वएण णिच्च णियकज्ज साहये) योगी मौनव्रत से नित्य ही निजकार्य को सिद्ध कर लेवें।
टीका-जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से प्रगट हुइ दिव्य ध्वनि के सुनने और धारण करने में समर्थ जो गौतम स्वामी, उनके द्वारा गूंथे गये आचारांग सूत्र में अथवा यतिप्रतिक्रमण में स्पष्टतया प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को निर्णय करके या समझ करके मुनिबर सर्वजनों के साथ वार्तालाप आदि छोड़कर मौनव्रत पूर्वक नित्य ही निजकार्य-ज्ञान दर्शन सुख वीर्यस्वरूप निज शुद्धामा को साधित करे।
इसे ही कहते हैं-- . समता, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, बैनयिक, कृतिकर्म आदि