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नियमसार-प्राभृतम् ___ अद्यत्वे केचिदप्रतिनोऽपि समयसाराद्यध्यात्मशास्त्रं पठित्वा परद्रव्येभ्यः स्वमात्मानं पृथगवबुद्धय स्वं च सिद्ध सदृशं मत्वा नेत्रे निमील्य उपविशन्ति, कथयन्ति चास्माकं स्वानुभूतिर्जायते, निश्चयशुद्धात्मानं ध्यात्वा वयं कर्मणां कर्तारो भोक्तारश्च न भवाम इति चेन्नैतत् सुष्ठु । किंच 'शुद्धोऽहं सिद्धोऽहम्' इत्यादिभावना शब्दरूपा सविकल्पा एव चतुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानेषु संभवति, नैतबध्यात्मध्यानं निश्चयधर्म्यध्यानं था सिद्धान्तग्रन्थेऽस्मिन् नियमसाराध्यात्मग्रन्थे चापि शुद्धात्मतत्त्वस्य श्रद्धानमेव कथ्यते अस्माकं न च ध्यानम् ।
____ अपरं च-ऐदंयुगीनाः शुभोपयोगिनो मुनयोऽपि अस्माकं निस्तारका भवन्ति, स्वयमपि द्वित्रिचतुर्भवं वा गृहीत्वा निर्वाणं प्राप्स्यन्ति । उक्तं च प्रवचनसारे--
अशुभोवयोगरहिदा, सुब्रुगनुप कुहोदजुमा यः।
णित्थारयति लोग, तेसु पसत्यं लहवि भत्तो' । आजकल कोई अवती भी समयसार आदि अध्यात्मशास्त्र पढ़कर परद्रव्यों से अपनी आत्मा को भिन्न समझकर अपने को सिद्ध के सदृश मानकर आँख बन्द कर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि हमें स्वानुभूति हो गई है, हम लोग शुद्धात्मा का ध्यान करके कर्मों के कर्ता और भोक्ता नहीं हैं । यदि कोई ऐसा कहते हैं तो वह कथन ठोक नहीं है। क्योंकि "मैं शद्ध हैं, मैं सिद्ध है।" इत्यादि भावना शब्दरूप सविकल्प हो है, जो कि चौथे पाँचवें और छठे गुणस्थानों में सम्भव है। यह अध्यात्मध्यान अथवा निश्चयधर्मध्यान नहीं है ।
सिद्धांत ग्रंथ में और इस नियमसार नाम के अध्यात्म ग्रन्थ में भी शवात्मा का श्रद्धान हो कहा गया है, न कि हम लोगों के लिये ध्यान। दूसरी बात यह है कि आजकल के शुभोपयोगी मुनि भी हम सभी को पार करने वाले होते हैं। वे स्वयं भी दो तीन या चार भव ग्रहण कर निर्वाण को प्राप्त करेंगे।
प्रवचनसार में कहा भी है--
अशुभोपयोग से रहित शुभोपयोग से युक्त अथवा शुद्धोपयोग से युक्त साधु लोक को-संसारी जीवों को संसार से पार करने वाले हैं। उनमें भक्ति करने वाला भक्त प्रशस्त-पुण्य को प्राप्त कर लेता है। १, प्रवचनसार गाथा २६ ।