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नियमसार-प्राभृतम् भवेत् । निश्चयनयप्रधानेन कयनमेतत् । तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे-तस्मात् कारणात् तस्य परमतपोधनस्य कर्म क्रियाया अनुष्ठानमावश्यकलक्षणं निश्चयपरमावश्यकनामधेयं न भवेत् ।
तद्यथा--सप्तद्धिसमन्वितमनःपर्ययज्ञानी आचार्योपाध्यासर्वसाधूनां मध्ये ज्येष्ठः सर्वश्रेष्ठो गौतमस्वामी स्वयं षष्ठगुणस्थाने शुभभावेन परिणतः सन् देववंदनां चकार "जयति भगवान्" इत्यादिना । यतिप्रतिक्रमणसूत्राण्यपि तेन स्वामिनैव रषितानि, तत्रापि कथितमस्ति
जस्संतियं धम्मपहं णियच्छ, सरसंतियं येणइयं पउंजे। ___ काएग दाथा मणसा वि णित्रं, सरकारए तं सिरपंचमेण ॥'
तथैव नन्थकर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्योऽपि शुभभावेनैव चर्चा कुर्वाण आसीत् । इमे महातपोधना यदा सप्तमगुणस्थाने स्थित्या ध्यानमकुर्वन् तदैव शुद्धोपयोगिनो बभूवुः । आहारकद्वय प्रकृतिबंधो यद्यपि अप्रमत्तगुणस्थानाद् अष्टमगुणस्थानस्य षष्ठहआ है । इस कारण उस परम तपोधन को क्रियाओं का अनुष्ठान निश्चय ही परम आवश्यक नाम का नहीं होता 1
इसो को कहते हैं-- सात ऋद्धियों से समन्वित, मन:पर्ययज्ञान से सहित श्री गौतमस्वामी सर्वश्रेष्ठ मुनिराज थे, ये सर्व आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में सबसे बड़े थे । इन श्री गौतम गणधरदेव ने स्वयं छठे गुणस्थान में शुभभाव से परिणत होते हुये "जयति भगवान् हेमाम्भोज" इत्यादि चैत्यभक्ति को बोलते हुये देववन्दना की थो। इन्हीं गणधरदेव ने यतिप्रतिक्रमण सूत्र भी रचे हैं। उस प्रतिक्रमण में भी उन्होंने कहा है
__ जिनके पास मैंने धर्मपथ को प्राप्त किया है, उनके निकट में विनयक्रिया करता है। काय बचन और मन से मैं नित्य ही सिर झुकाकर पञ्चांग नमस्कार करता है।
उसी प्रकार इस नियमसार ग्रन्थ के कर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्य भी शुभभाव से ही चर्या कर रहे थे। ये सभी तपोधन जब सातवें गुणस्थान में स्थित होकर ध्यान करते थे, तभी शुद्धोपयोगी होते थे ।
आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दोनों प्रकृतियों का बन्ध १. पाक्षिक प्रतिक्रमण ।