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नियमसार-प्रामृतम् भागपर्यन्तं भवति, किंतु तस्योदयः प्रमत्तगुणस्थाने एव श्रूयते । पदि ऋद्धिधारिणो महामुनयोऽपि अकृत्रिमजिनालयवंदनागुरुनिषधास्थानवंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याल्यानस्वाध्यायाविक्रिया विदध्युः, तर्हि अद्यतनसामान्यानगाराणां तु अवश्यं कर्तव्या इमाः क्रियाः ।
अत्र न निश्चयधर्म्यध्यानशक्लध्यानमयपरमसमाधिरूपावस्थापरिणतमहामुनीश्वराणामेव शुभभावो निषिध्यते, न तु कुन्दकुन्दसदृशामपि मुनीनाम्, अतस्ते कथंचित् निश्चयनयापेक्षया परमवीतरागचारित्रापेक्षया वा अन्यवशा उच्यन्ते न च सर्वथा । अथवा ये केचित् संयताः सम्यक्त्वरहिताः केवलं शुभभावे परिणतास्तेनैव मोक्ष मन्यन्ते, सांसारिकसुखं वा समीहन्ते त एवान्यवशाः कण्यन्ते । किंच, तेषां कारणसमयसारपरिणतिर्नास्ति, सा ध्यानकाले एव सिद्धयति ।।
यतापि मालवे गुणस्थान में और भारचे गुरधान के छठे भाग तक होता है, किन्तु इनका उदय छठे गुणस्थान में ही सुना जाता है। यदि ऋद्विधारी महामुनि भी अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना, गरुओं के निषद्यास्थान-समाधिस्थानों की बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय आदि क्रियायें करते थे, तो फिर आजकल के सामान्य अनगार मुनियों को तो अवश्य ही ये आवश्यक क्रियायें करते रहना चाहिये।
__ यहाँ पर तो निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानमय परमसमाधिरूप अवस्था से परिणत महामुनिश्वरों के ही यह शुभभाव निषिद्ध किया गया है, न कि श्रीकुन्दकुन्ददेव जैसे भी मुनियों के । इसलिये ये भी कथंचित् निश्चयनय को अपेक्षा अथवा परमवीतराग चारित्र की अपेक्षा से अन्यवश कहलाते हैं, किन्तु सर्वया ये अन्यवश नहीं हैं।
अथवा जो कोई संयत मुनि सम्यक्त्व से रहित हैं, केवल शुभभाव से ही परिणत होते हुये इसी से मोक्ष मानते हैं, अथवा सांसारिक सुखों की इच्छा करते हैं, वे ही अन्यवश कहलाते हैं, क्योंकि उनके कारणसमयसार परिणति नहीं है, वह परिणति ध्यान के समय हो सिद्ध होती है।