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नियमसार प्राभृतम्
भक्तिप्रकारेण मूलाचा रग्रंथ विहितव्यवहारषडावश्यक क्रियारूपेण वा आत्मवशस्वरूपनिश्चयावश्यकरूपेण च । तम्हा आवासयं कुज्जा - ततो हेतो: चारित्रेण च्युतो मा भूयाम् इति हेतोः आवश्यकं कुर्यात् ।
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इतो विस्तरः- दंगम्बरों दीक्षामाश्रित्य सर्वारम्भपरिग्रहग्रहनिर्मुक्तो यतिः गुरोः प्रसादावष्टाविंशतिमूलगुणान् परिपालयन् यदि सामायिकस्तुत्यादिषक्रियासु प्रमाद्यति, अथवा इमाः क्रिया बाह्याडंबररूपा अध्यात्मक चिमता मुनिना न कर्तव्या इति संचिन्त्य न करोति स मुनिर्व्यवहारचारित्रात् च्युतो भवति । पुनः यो महायोगीश्वरः निर्विकल्पध्यानरूपां निश्चयक्रियां कर्तुं क्षमोऽपि लोकंषणावशेन प्रमादेन वा न करोति, तहस निश्चयचारित्रात् च्युतो भवति । यदि स्थविरकल्पो मुनिः निश्चयावश्यकं ध्येयं कृत्वा उत्तमसंहननाद्यभावे व्यवहारावश्यकमेव परिपूरयितुमीहते निश्चयक्रियां च श्रद्धतेऽसौ प्रमत्तमुनिः भावलंगो भवति, न च चारित्राद् हीन इति ज्ञात्वा यावन्निश्चयक्रियां कर्तुं न क्षमेत, तावद् व्यवहारक्रिया न त्यक्तव्या मोक्षमार्गस्थेन त्वया ॥ १४८ ॥
भक्ति के रूप से, अथवा मूलाचार ग्रन्थ में कहे गये व्यवहार छह आवश्यक क्रियारूप से, और जो आत्मवश मुनि का स्वरूप है, ऐसी निश्चय आवश्यक क्रियारूप से, "मैं चारित्र से च्युत न हो जाऊँ" इसीलिये आवश्यक करना चाहिये ।
इसी का विस्तार कहते हैं— देगंबरी दीक्षा का आश्रय लेकर संपूर्ण आरंभ परिग्रहरूप ग्रह से छूटकर जो मुनि गुरु के प्रसाद से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुये यदि सामायिक, स्तुति आदि छह क्रियाओं में प्रमाद करते हैं । अथवा "ये क्रियायें बाह्याडंबर रूप हैं, आध्यात्मरुचिवाले मुनियों को नहीं करनी चाहिये ।" ऐसा सोचकर जो नहीं करते हैं वे मुनि व्यवहार चारित्र से च्युत हो जाते हैं ।
पुनः जो महायोगीश्वर निर्विकल्प ध्यानरूप निश्चय क्रियाओं को करने में समर्थ होते हुए भी लोकैषणा के वश से अथवा प्रमाद से नहीं करते हैं, तो वे निश्चयचारित्र से च्युत हो जाते हैं । यदि स्थविरकल्पी मुनि निश्चय आवश्यक को ध्येय बनाकर उत्तम संहनन आदि के अभाव में व्यवहार आवश्यक को ही परिपूर्ण करना चाहते हैं और निश्चय क्रिया का श्रद्धान करते हैं, वे प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि भावलिंग हैं, न कि चारित्र से होन, ऐसा जानकर जब तक निश्चय क्रिया को करने में समर्थ न हो सकें, तब तक मोक्षमार्ग में स्थित हुए तुम्हें व्यवहार क्रियायें छोड़न नहीं चाहिये || १४८ ॥