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नियमसार - प्राभूतस्
आवश्यकक्रियापरिणतो मुनिः कीदृशों भवेदित्याशंकायां समादधते आचार्यवर्याः
आवासएण जुत्तो, समणो सो होदि अंतरंगप्पा | आवासययरिहीणी, समणो तो होदि बहिरप्पा ॥१४९॥
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समणो आवासएण जुत्तो-यः चरणकरणकुवालो महामुनिः श्रमण आवश्यकेम युक्तोऽस्ति । सोअंतरंगणा होदि-स अंतरंगात्मा भवति । समणो आवासयपरिहीणोयः श्रमण आवश्यक क्रियाहीनोऽस्ति । सो बहिरप्पा होदि-स बहिरात्मा भवति ।
तद्यथा - जीवास्त्रेधा बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मभेात् । प्रथमगुणस्थानाद् आ तृतीयाद् बहिरात्मानोऽसयतसम्यग्दृष्टिजीवादारभ्य क्षीणमोहगुणस्थानपर्यन्ता अंतरात्मानः सयोग्ययोगिकेवलिनः सिद्धाश्च परमात्मान उच्यन्ते । अतरात्मजीवा अपि त्रिधा भिद्यन्ते । चतुर्थगुणस्थानवतिनो जघन्याः, पंचमगुणस्थानादारभ्य उपशांतमोहगुणस्थानपर्यन्ता मध्यमाः, क्षीणमोहगुणस्थानवर्तिन उत्कृष्टाश्चेति । एतदेव कथनं
आवश्यक क्रिया से परिणत हुए मुनि कैसे होते हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यवर्य समाधान देते हैं----
अन्वयार्थ - - ( आवासएण जुत्तो सो समणो अंतरंगप्पा होदि) जो आवश्यक से 'युक्त हैं, वे श्रमण अन्तरात्मा होते हैं । ( आवासयपरिहीणो समणो सो बहिरप्पा होदि) जो आवश्यक से रहित हैं, वे श्रमण बहिरात्मा होते हैं ।
टीका -- जो चरण और करण में कुशल, श्रमण, महामुनि आवश्यक से युक्त हैं वे अन्तरात्मा हैं । जो श्रमण आवश्यक किया से होन हैं, वे बहिरात्मा होते हैं ।
इसे ही कहते हैं - बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के होते हैं । प्रथम, दूसरे और तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थानपर्यंत अंतरात्मा हैं और सयोगकेवली अयोग केवलो जिन तथा सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं । अन्तरात्मा जीवों के भी तीन भेद हैं- चौथे गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं । पाँचवें गुणस्थान से लेकर उपशांत गुणस्थानपर्यंत जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव उत्तम अन्तरात्मा हैं । यही कथन रयणसार और मार्गप्रकाश ग्रन्थ
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