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नियमसार-प्राभृतम् मनसो ज्ञानाराधनायां तन्मयता एव कारणम्, नासौ स्वाध्यायो निर्विकल्पध्यानम् । तथाहि
मनो बोधाधीनं विनयविनियुक्तं निजबपु
धः पाठायत्तं करणगणमाधाय नियतम् । वधानः स्वाध्यायं कृतपरिणतिर्जनवचने
करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदम् ॥' स्वाध्यायस्थ पूर्वाह्णापरालपूर्वरात्रिकापररात्रिकभेदात् चत्वारः काला: सन्ति । त्रिसंध्यमर्धरात्रौ च प्रत्येककाले द्विमहर्तकालं विहाय स्वाध्यायकालो निगद्यते । देवचंदन समायक्रिया सासारसदनकायोत्सर्गक्रिया भवन्ति, प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानसमये ते एव क्रिये स्तः। ध्यानस्य कालस्तु अन्तमुहूर्तमात्रमेव, तदपि उत्तमसंहननापेक्षयास्ति । ततो ध्यानादतिरिक्तकाले साधवः स्वाध्यायवंदनादिक्रियास्वेव प्रवर्तन्ते।
ननु ध्यानस्य कालो यदि अन्तर्मुहूर्तमात्रम्, तर्हि भगवबाहुबलिस्वामी आ संवत्सरं ध्याने कथं तस्थौ ?
कहा गया है । उसमें मन की ज्ञानाराधना में तन्मयता ही कारण है, किन्तु वहाँ वह स्वाध्याय निर्विकल्प ध्यान नहीं है ।
जब कोई जीव जिनवचन में परिणति करके स्वाध्याय करता है, उस समय उसका मन ज्ञान के अधीन हो जाता है, शरीर विनय से सहित रहता है, वचन पाठ पढ़ने में लग जाता है और इंद्रियों नियत-नियंत्रित हो जाती हैं । इसलिये इसमें कर्मक्षय होने से यह एक प्रकार की समाधि-ध्यान ही है।
स्वाध्याय के पूर्वाल, अपराल, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक के भेद से चार काल होते हैं। तीनों संध्याओं में और अर्धरात्रि में प्रत्येक काल में दो-दो मुहूर्त काल छोड़कर स्वाध्यायकाल कहलाता है । देववंदना और स्वाध्याय क्रिया में समता, स्तव, बंदना और कायोत्सर्ग क्रियायें हो जाती हैं। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के समय वे ही दो क्रियायें हैं । ध्यान का काल तो अंतर्महुर्त मात्र हो है । वह भी उत्तम संहनन की अपेक्षा से हैं। इसलिये ध्यान से अतिरिक्त काल में साधुगण स्वाध्याय, बंदना आदि क्रियाओं में ही प्रवृत्ति करते हैं।
शंका-यदि ध्यान का काल अंतर्मुहूर्त मात्र ही है तो भगवान् बाहुबली स्वामी एक वर्ष तक ध्यान में कैसे स्थित रहे ? १. अनगारधर्मामृत ।