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नियमसार-प्राभृतम्
४४१ तात्पर्यमेतत् -- शुद्धबुद्धनित्यनिरंजननिर्विकारनिजपरमात्मतत्स्वरूचिरूप . निश्चयसम्यवस्वं तस्यैव ज्ञानं तत्रैव निश्चलावस्थितिरूपं निश्चयचारित्रमेतन्निश्चयरत्नत्रयं तस्यैकाग्रपरिणतिरूपे निश्चयचारित्रे श्रमणस्य सर्वाः क्रियाः सिखयन्ति । इति ज्ञात्वा तत्प्राप्त्युपायस्य व्यवहाररत्नत्रयस्यान्तर्गतप्रतिक्रमणादिक्रियायां तावन्मनों मिधातव्यं यावन्निश्चयावश्यक न सिद्धयेत् ॥१५२॥
तहि वचनमयं प्रतिक्रमणादिकमावश्यकं भवति न वेति प्रश्ने श्रीकुंदकुंददेवा युवन्तिवयणमयं पडिकमणं, वयणमयं पच्चखाण णियमं च । आलोयण वरणमयं, तं सव्वं जाण सज्झाउं ॥१५३॥ वयण मयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च आलोयणवयणमयं
यहाँ तात्पर्य यह है कि शुद्ध, बद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकार, जो निजपरमात्म तत्त्व है, उसकी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, उसीका ज्ञान और उसीमें निश्चल अवस्थितिरूप निश्चयचारित्र, यही निश्चयरत्नत्रय है । इसमें एकाग्र परिणतिरूप निश्चयचारित्र में श्रमण- मुनि को सभी क्रियायें सिद्ध हो जाती हैं। ऐसा जानकर उसको प्राप्ति का उपाय जो व्यवहार रत्नत्रय है, उसी के अंतर्गत प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में तब तक अपने मन को लगाना चाहिये, जब तक निश्चय आवश्यक सिद्ध न हो जावे ।
भावार्थ-सातवें गुणस्थान के प्रथम स्वस्थान अप्रमत्त में सविकल्प ध्यान होने से सविकल्प अवस्था में रत्नत्रय को एकाग्रता व्यवहाररूप में रहती है और दूसरे सातिशय अप्रमत्त में निर्विकल्प ध्यानरूप निर्विकल्प अवस्था में रत्नत्रय की एकाग्रता निश्चय रूप में मानी जाती है ।।१५२॥
तो पुनः वचन रूप प्रतिक्रमण आदि क्रियायें आवश्यक हैं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुंदकुंददेव कहते हैं---
___ अन्वयार्थ---(वयणमयं पडिकमणं बयणमयं पच्चखाण णियमं च) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और (आलोयणं बयणमयं) वचनमय आलोचना (तं सव्वं सज्झाउं जाण) इन सभी को तुम स्वाध्याय समझो ।
टोका-"मिथ्या मे दुष्कृतं” इत्यादि वचनों के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण