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नियमसार-प्रामृतम् कारिणी प्रवृत्ति चिकीर्षवो स्वयं स्वमात्मानमुपेक्ष्य ध्यानाभ्यास न कुर्वन्ति, तेपि दालगिनो बहिरात्मान एव भवन्ति । इति ज्ञात्या साधुभिः यथाशक्ति प्रत्यहं ध्यानाभ्यासो विधेयः ॥१५१॥ तहि प्रतिक्रमणादिक कर्तव्यं न वेति शंकायां समादधते सूरिदेवाः
पडिकमणपहुदिकिरियं, कुवंतो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्टिदो होदि ॥१५२॥
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो-निश्चयनयापेक्षया प्रतिक्रमणादिक्रियां कुर्वन् साधुर्यदा वर्तते, तदा तस्य णितशास्स चारितं-निश्चयनामधेयं चारित्रं भवति । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्टिदो होदि-तेन हेतुना तु घोतरागपरमसमाधिरूपचारित्रे श्रमणमुनिः अभ्युत्थितो भवति, ऐकाइयं लभते ।
तद्यथा--ये महातपोधना: सामायिकप्रतिक्रमणादिव्यवहारक्रियां कारं कार स्वशक्ति संचिन्वन्ति, त एव पुनः निर्विकल्पध्यानरूपामिमा क्रियां कर्तुं क्षमा भवन्ति,
पूजा आदि की अपेक्षा रखते हुए, सतत सभी लोगों को खुश करने वाली प्रवृत्ति के इच्छुक होकर, अपनी आत्मा की उपेक्षा करके ध्यान का अभ्यास नहीं करते हैं, ये द्रव्यलिंगी बहिरात्मा ही होते हैं। ऐसा जानकर साधुओं को यथाशक्ति प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करते ही रहना चाहिए ॥१५१॥
तो फिर प्रतिक्रमण आदि क्रियायें करना चाहिए या नहीं ? ऐसी शंका होने पर आचार्यदेव समाधान करते हैं
अन्वयार्थ (पडिक मणपहुदिकिरियं कुब्वंतो) प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करने वाले के (णिच्छयस्स चारित्त) निश्चयनय का चारित्र होता है। (तेण दु) इसी हेतु से (समणो विरागचरिए अब्भुट्टिदो होदि) श्रमण विरागचर्या में उपस्थित होते हैं।
टोका--निश्चयनय की अपेक्षा से प्रतिक्रमण आदि क्रिया को करते हुए साधु जब प्रवृत्ति करते हैं, तब उनके निश्चय इस नाम का चारित्र होता है । उस हेतु से वीतराग परमसमाधिरूप चारित्र में वे मुनि स्थित-एकाग्रचित्त होते हैं।
इसे ही कहते हैं--जो महातपोधन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि व्यवहार क्रिया को कर-करके अपनी शक्ति संचित कर लेते हैं, वे ही पुनः निर्विकल्प ध्यान