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नियमसार प्रामृतम्
तद्यथा- -पष्ठसप्तमगुणस्थानवर्तनो मुनयो यदा धर्म्यंध्याने स्थित्वा पिडस्थपदस्थ रूपस्थरूपातीतप्रकारेण किमपि ध्यायन्ति ते मध्यमान्तरात्मानो भवन्ति, पुनः यदि श्रेणिमारुह्य शुक्लध्यानं कुर्वन्ति तहि अपि उपशान्तकषायं यावद् मध्यमान्तरात्मानोऽग्रे द्वादशमगुणस्थाने गत्वा एव उत्तमा अन्तरात्मानो गोयन्ते । अथवा धवल टीकाकाराभिप्रायेण दशमगुणस्थानपर्यन्ता अपि धर्म्यध्यानावलम्बिनो भवन्ति अप्रे शुक्लध्यानध्यातार: । इदमेव धर्म्यध्यानं निश्चयसंज्ञां लभते ।
तथाहि
"असंजद सम्भाविठि - संजवासंघद- पमत्तसंजद - अपमन्नसंजद - अपुव्वसंजद- अणियट्टिसंजदसुभसंप राइप- बगोच सामएमु धम्मज्माणस्स पवृत्ती होबि ति जिणोवएसादो" "
ये मुनयः अनयोर्द्वयोर्ध्यानयोरेकतरेण यवा परिणमन्ते तदानीमें वान्तरात्मानः शेषकाले ध्यानरूपपरमसमाधिच्युतापेक्षया बहिरात्मानो भवन्ति, नव सर्वथा । अथवा ये केचिन्मुनयः ख्यातिलाभ पूजाद्यपेक्षिणः सततं सर्वजनसन्तोष
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इसी का विस्तार करते हैं - छठे - सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि जब धर्मध्यान में स्थित होकर पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद में से किसी का भी ध्यान करते हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं । पुनः यदि श्रेणी में चढ़कर शुक्लध्यान को करते हैं, तो भी उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत मध्यम अन्तरात्मा ही हैं । इसके ऊपर बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर ही उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं । अथवा घवला टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य के अभिप्राय से दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान को करने वाले हैं, इसके आगे शुक्लध्यान के ध्याता हैं । यही धर्मध्यान " निश्चय" इस नाम को प्राप्त करता है | धवला में कहा है-
उसे ही कहते हैं- "असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसां परायवर्ती मुनि इन क्षपक श्रेणी और उपशम श्रेणो के गुणस्थानों में और उपशांत कषाय गुणस्थान में धर्मध्यान की प्रवृत्ति है । ऐसा जिनेंद्रदेव का उपदेश है ।"
जो मुनि इन दोनों ध्यानों में से किसी एक से जब परिणमन करते हैं, तभी ये अन्तरात्मा हैं । शेष काल में ध्यानरूप परमसमाधि से च्युत होने को अपेक्षा से हरात्मा हैं, किंतु सर्वथा बहिरात्मा नहीं हैं । अथवा जो कोई मुनि ख्याति, लाभ, १. वला, पुस्तक, १३, १० ७४ ।