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नियमसार-प्राभृतम् ततो रत्ननस्यैकाम्यावस्थायां स्थिता वीतरागचारित्रपरिणताः साधवः स्वश्रामण्यं परिपूर्ण कुर्वन्ति । उक्तं च देवैरेव प्रवचनसारे थमणस्य श्रामण्यस्यापि लक्षणम्
समससुबंधुधग्गो, समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण, जीविधमरणे समो समणो । उसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुढिदो जो दु।
एयग्गगदो ति मवो, सामण्णं तस्स परिपुण्ण ॥ श्रीजयसेनाचार्येणाप्युक्तम्• "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेवनयेनैकं यत् तत्सविकल्पायस्थायां व्यवहारेणेकाम्यं भण्यते, निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्सरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरलामा मोक्षमार्गो ज्ञातव्य इति ।"
रूप इस क्रिया को करने में समर्थ होते हैं। इसलिए रत्नत्रय की एकाग्र अवस्था में स्थित हुए-वीतराग चारित्र को परिपूर्ण कर लेते हैं ।
श्रीकुंदकुंददेव ने ही प्रवचनसार में श्रमण को श्रमणता का लक्षण कहा है--
जो शत्रु-मित्र में समभावी हैं, सुख दुःख में समभावो हैं, प्रशंसा-निदा में समभावी हैं, मृत्तिका और सुवर्ण में समभावी हैं और जीवन-मरण में समभावी हैं, वे श्रमण हैं। जो दर्शन ज्ञान चारित्र, इन तीनों में युगपत् स्थित होते हैं, उसमें एकाग्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उनके ही यह श्रमणत्व परिपूर्ण हो जाता है।
श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है
"सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन पानक-ठंढई के समान अनेक भी अभेदनय से एक हैं। वे सविकल्प अवस्था में व्यवहारनय से एकाग्र कहलाते हैं। तथा निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान अवस्था में निश्चय से एकाग्न-एकरूप कहलाते हैं। वही निश्चयरत्नत्रय पर्यायवाची नाम से परमसाम्य है, वह परमसाम्य ही पर्यायवाची नाम से शुद्धोपयोग लक्षणरूप है, उसे ही श्रमणता या दूसरे नाम से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।"
१. प्रवचनसार, गाधा २४१-२४२ ।