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नियमसार-प्राभूतम्
४३७ 'श्रावकः साधुभिश्च, अतो जिनकल्पिमुनिचर्याऽग्रिमभवे मे सिद्धयेद् इवि भावनया स्थविरकल्पिचर्या संप्रति युष्माभिराश्रयणीया ॥१५०॥ अंतरात्मा किं कि भ्यानमाश्रयदिति प्रश्ने प्रत्युत्त रयन्त्याचार्यदेवाः
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥१५१॥
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो-यस्तपोधनो धर्माध्याने शुक्लथ्याने वा परिणतो भवति, सो वि अन्तरंगप्पा-सोऽपि अन्तरंगात्मा मध्यम उत्तमो वांतरात्मा उच्यते । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा-धर्म्यध्यानरहितः शुक्लध्यानरहितो वा श्रमणो बहिरात्मा भवति । इदि विजाणीहि-इत्थं हे वत्स ! त्वं जानीहि । इसलिए 'जिनकल्पी मुनि की चर्या मुझे अगले भव में प्राप्त हो' ऐसी भावना करते हुए आपको इस समय स्थविरकल्पी मुनि की चर्या का आश्रय लेना चाहिए।
भावार्थ-यहाँ पर जो अन्तरंग में भी जल्प-वचनोच्चारण करते हैं या बाहर में वचन बोलते हैं, उन सभी वचन बोलने वालों को बहिरात्मा कहा है। प्रशस्त-अप्रशस्त वचनों का विभाजन नहीं किया है। यह उत्तम अन्तरात्मा की अपेक्षा ही कथन है, अन्यथा कुंदकुंददेव स्वयं बहिरात्मा की कोटि में आ जायेंगे, वे भी तो ग्रन्थ लिखते थे, शिष्यों को उपदेश देते थे | अतः अंतरंग बहिरंग जल्परूप आवश्यक क्रियायें भी करते ही थे, यह निश्चित है। इसलिए एकांत नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥१५०॥
__ अन्तरात्मा कौन कौन से ध्यान का आश्रय लेवे ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं
अन्वयार्थ (जो धम्मसुक्क्रझरणम्हि परिणदो) जो धर्म्य, शुक्ल ध्यान में परिणत हैं, (सो बि अंतरंगप्पा) वे भी अंतरात्मा हैं। (झाणविहीणो समणो बहिरप्पा) ध्यान से रहित श्रमण बहिरात्मा हैं ।(इदि विजाणीहि) ऐसा जानो।
टोका-जो परम तपोधन धर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यान में परिणत होते हैं, चे भी अन्तरात्मा--मध्यम अन्तरात्मा या उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। इससे विपरीत जो धर्मध्यान से रहित हैं, अथवा शुक्लध्यान से रहित हैं, वे मुनि बहिरात्मा होते हैं । हे वत्स ! तुम ऐसा जानो ।