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नियमसार-प्राभृतम् जो अंतरवाहिरजणे बट्टइ-पः साधुः अन्तरंगबहिरंगजल्पेषु वर्तते, सामायिकस्तववंदनामहामंत्रानुस्मरणचितनरूपान्तर्जल्पे प्रवर्तते, तथा प्रतिक्रमणादिदण्डकोच्चारणरूपबाह्य जल्पे प्रवर्तते । सो बहिरप्पा हवेइ-स मुनिः शुभोपयोगे प्रवर्तमानो निश्चयनयापेक्षया शुद्धोपयोगापेक्षया वा बहिरात्मा भवेत् । जो जप्पेसू ण वट्टइएतस्माद्विपरीतो यो जन्पेषु न वर्तते, शुद्धात्मतत्त्वेषु मन ऐकायं विधत्ते, सो अंतरंगप्पा उच्चइ-स एवान्तरात्मा क्षीणमोहगुणस्थानवों उत्तमान्तरात्मा उच्यते ।
तद्यथा-षष्ठगुणस्थानवतिनो महातिमुनयः शिष्याणां संग्रहानुग्रहनिग्रहकुशला भवन्ति, तर्हि उपदेश शिक्षादीक्षादिकार्यकलापेषु प्रशस्तरूपेण अन्तर्वाह्मजल्पं कुर्वन्ति ते मध्यमान्तरात्मानः सन्ति, जिनागमे श्रीकुन्दकुन्ददेवकृतेऽपि तेषामोद्गाबेशो धर्तते । तथाहि
रोगोग' या ना मार हाना रूढं ।
दिवा समणं साहू पतिवज्जदु आवसत्तीए ॥ जो वचनों में प्रवृत्ति नहीं करते हैं, (सो अन्तरंगप्पा उच्चइ) बे अन्तर आत्मा कहे जाते हैं।
टीका--जो साधु सामायिक, स्तब, वंदना और महामंत्र के अनुस्मरण, चिंतनरूप अन्तरंग जल्प में प्रवृत्ति करते हैं तथा प्रतिक्रमण आदि के दण्डक के उच्चारण रूप बाह्य जल्प में प्रवृत्त होते हैं, वे मुनि शुभोपयोग में प्रवृत्त होते हुये निश्चयनय की अपेक्षा से या शुद्धोपयोग की अपेक्षा से बहिरात्मा होते हैं । इससे अतिरिक्त जो जल्प में प्रवृत्त नहीं होते हैं, प्रत्युत शुद्धात्म तत्त्व में मन को एकान करते हैं, वे हो क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं ।
इसे ही कहते हैं-छठे गुणस्थानवर्ती महावती मुनि शिष्यों का संग्रह करने में, उन पर अनुग्रह ॥रने में और उनका निग्रह करने में कुशल होते हैं, तो फिर वे उपदेश, शिक्षा, दीक्षा आदि कार्यों के करने में प्रशस्तरूप से अन्तर बाह्य जल्प करते हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं । श्रीकुंदकुंददेव रचित जिनागम में भी उनके लिये ऐसा आदेश है । उसे ही कहते हैं-"शुभोपयोगो मुनि, किन्हीं अन्य मुनि को रोग से, भूख से, प्यास से अथवा श्रम-थकावट आदि से पीड़ित देखकर उन्हें अपनी शक्ति अनुसार स्वीकृत करें--अर्थात् वैयावृत्त्य द्वारा उनका खेद दूर करें। ग्लान