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नियमसार-प्राभुतम् रयणसारमार्गप्रकाशग्रंथयोरस्ति । ये केचिन्मुनयः षष्ठसप्तमगुणस्थानवतिनस्ते मध्यमान्तरात्मानो भवन्ति व्यवहारनिश्चयक्रिययोः सापेक्षप्रवृत्तत्वात्, तत उपरि उपशांतकषायगणस्थाने यावद् मध्यमान्तरात्मान एव, तदनु चारित्रमोहं सर्वथा निर्मूल्य ये क्षीणमोहगुणस्थाने प्रविशन्ति त उत्तमान्तरात्मानः कथ्यन्ते । पुनश्च ये द्रलिंगधारिणो मुनय आवश्यकानुपेक्षन्ते ते जिनाज्ञालोयनाद् बहिरात्मानो भवन्ति ।
तात्पर्यमेतत्--ये वर्तमानकालेऽपि मुनिसं गृहात विहरन्ति, संधि पंडावश्यकक्रिया: सावधानतया परिपालनीयाः। कदाचित् तासु प्रमावेनास्वस्थशरीरेण विक्षिप्तमनसा वातिचारानाचारदोषाः प्रभवेयुः, तहिं गुरूणां सकाशे प्रायश्चित्तं गृहीत्वा मूलगुणा निर्दोषाः कर्तव्याः । अनेन विधिनैव निश्चयमोक्षमार्गो लप्स्यते ॥१४९॥ अन्यप्रकारेगापि बहिरात्मान्तरात्मनोलक्षणं कथयन्त्याचार्यदेवाः
अंतरबाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हबेद बहिरप्पा ।
जप्पेसु जो ण बट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।। में भी है। जो कोई मुनि छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा होते हैं। उनमें व्यवहार और निश्चय क्रियायें परस्पर अपेक्षा रखकर होती हैं । उसके ऊपर ग्यारहवें गणस्थान तक भी मध्यम अन्तरात्मा ही हैं। उसके बाद चारित्र मोह का जड़ से निर्मूलन करके जो मुनि क्षीणकषाय गुणस्थान में प्रवेश करते हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं ।
पुन: जो लिंगधारी मुनि आवश्यक क्रियाओं की उपेक्षा कर देते हैं, वे जिनेंद्रदेव की आज्ञा का लोप करने से बहिरात्मा हो जाते हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि जो वर्तमान काल में भी मुनिव्रत ग्रहण करके विहार करते हैं, उन्हें भी आवश्यक क्रियायें सावधानी पूर्वक पालन करना चाहिये । कदाचित् जन क्रियाओं में प्रमाद से, अस्वस्थ शरीर से अथवा विक्षिप्त मन से अतिचार, अनाचार दोष लग जावें, तो गुरुओं के पास प्रायश्चित्त लेकर अपने मूलगुण निर्दोष करना चाहिये । इस विवि से ही निश्चयमोक्षमार्ग प्राप्त होगा ।।१४९।।
अन्य प्रकार से बहिरात्मा-अन्तरात्मा का लक्षण आचार्यदेव कहते हैं
अन्वयार्थ-(जो अन्तरबाहिरजप्पे बट्टइ) जो अंतरंग और बहिरंग बचनों में प्रवृत्ति करते हैं, (सो बहिरप्पा हवेई) वे बहिरात्मा हैं । (जो जप्पेसु ण वट्ट इ) १. रयणसार, गाथा १२८-१२९ ।