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रियासार प्रामृतम् वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड समणाणं ।
लोगिगजणसंभासा ण णिविदा वा सुहोवजुदा' । टोकायां श्रीजयसेनाचार्येणापि कथितम्
"यया कोऽपि शुभोपयोगयुक्त आचार्यः सरागधारिश्रलक्षणशुभोपयोगिनां वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगिनां वैयावृत्त्यं करोति, तदा काले तद्वैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकजनैः सह संभाषणं करोति न शेषकाले।"
___ यदि इमे आचार्यादयो वैयावृत्त्यकरणार्थ लौकिकजनैः सहापि वार्तालाप कुर्वन्ति, तहि स्वावश्यकदेववन्दनागुरुवन्दनाप्रतिक्रमणादिक्रियायामपि अन्तर्बाह्य जल्पं कुर्वन्त्येव । अतो न इमे सर्वथा बहिरात्मानः, किंतु कथंचित् निर्विकल्पध्यानरूपपरमसमाधिच्युतापेक्षया एव । अद्यत्वे त्रिगुप्तिसाधूनां दर्शनमेवासंभवमिति ज्ञात्वाऽऽगमानुकूलप्रशस्तप्रवृत्ति विवधाना साधबोऽन्तर्बाह्मजल्पयुक्ता अपि बंद्याः सम्यग्दृष्टि
रोगी, गुरु, बाल अथवा वृद्ध साधुओं की वैयावृत्त्य के निमित्त, शुभ भावों से सहित लौकिक जनों के साथ वार्तालाप करना भी निदित नहीं है।"
श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है--"जब कोई शुभोपयोग से युक्त आचार्य सरागचारित्रधारी शभोपयोगी मुनियों की या वीतरागचारित्रधारी शद्धोपयोगियों की बैयावृत्य करते हैं, उस काल में वे उस वैयावृत्त्य के निमित्त लौकिक जनों के साथ संभाषण-वार्तालाप करते हैं शेषकाल में नहीं। यदि ये आचार्य वैयावृत्त्य करने के लिये लौकिक जनों के साथ भी वार्तालाप कर सकते हैं, तो फिर वे अपनी आवश्यक देववंदना, गरवंदना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में भी अन्तर बाह्य जल्प करते हैं । मन में या उच्चारण पूर्वक बोलते हो हैं । इसलिये ये मुनि सर्वथा बहिरात्मा नहीं है, किंतु कथंचित् निर्विकल्पध्यानरूप परमसमाधि से च्युत होने की अपेक्षा ही बहिरात्मा हैं। आजकल तीन गुप्ति से सहित साधुओं का दर्शन ही असंभव है, ऐसा जानकर आगम के अनुकूल प्रशस्त प्रवृत्ति करते हुए साधु अन्तर बाह्य जल्प से युक्त होते हुए भी सम्यग्दृष्टि श्रावक और साधुओं द्वारा वंद्य हैं।
१. प्रवचनसार, गाथा १५२१५३ ।