________________
नियमसार-प्राभृतम् स्थवशाः कथ्यते । परं सिद्धांतभाषयान्यवशा एव । तथैव एकवेशवतिनः प्रमतयोगिनश्च मध्यमान्तरात्मानः कथंचिदात्मनशा अपि अनया गाथयान्यवशा एव । तत उपरि अप्रमत्तगणस्थानात् सूक्ष्मसापरायं यावत् ध्याननिलीनाः साधबो मध्यमान्तरात्मानो बुद्धिपूर्वकरागद्वेषाभावादात्मयशा अपि कथंचित संज्वलनकषायाधीनत्वात् अन्यवशाश्च भवन्ति, क्षीणमोहगुणस्थानवतिनो निर्ग्रन्था उत्तमान्तरात्मानः कथंचिदपि अन्यवशा न भवन्ति, इति ज्ञात्वा निर्विकल्पावस्था ध्येयां कृत्वान्तरंगबहिरंगरूपा परवशता त्यक्तव्या भवति ॥१४५।। ।
एवमावश्यकशब्दस्य लक्षणं व्युत्पत्त्ययं च कृत्यान्यवशमुनीनां लक्षणं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया विधाय पंचगाथाभिः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।
शुभभाघद्रव्यगुणपर्यायेषु मनो विदयानोऽपि यदि अन्पवशो भवेत्तहि के आत्मवश इत्याशंकायां समादधते श्रीसूरिवर्याः
परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं ।
अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दु कम्मं भगंति आवासं ॥१४६॥ फिर भी अपने आत्मतत्त्व के श्रद्धान से ये जघन्य अन्तरात्मा हैं, ये कथंचित् स्वयश कहलाते हैं, किंतु सिद्धांत की भाषा में अन्यवश ही हैं। उसी प्रकार से देशवती श्रावक और प्रमत्तसंयत मुनि मध्यम अन्तरात्मा होने से कथंचित् स्ववश होते हुये भी इस गाथा के अभिप्राय से अन्यवश ही हैं। इसके ऊपर अप्रमत्त गुणस्थान से सूक्ष्मसांपराय पर्यन्त व्यान में लीन हुये साधु मध्यम अन्तरात्मा हैं । इनके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष का अभाव होने से आत्मवश भी हैं, किंतु संज्वलनकषाय के अधीन होने से कथंचित अन्यवश हैं। क्षीणमोह गणस्थानवर्ती निर्ग्रन्य मुनि उत्तम अंतरात्मा हैं, इसलिये ये कथंचित् भी अन्यवश नहीं हैं आत्मवश ही है । ऐसा जानकर निर्विकल्प अवस्था को ध्येय बनाकर अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की परवशता छोड़ देना चाहिये ॥१४॥
इस प्रकार आवश्यक शब्द का लक्षण और व्युत्पत्ति अर्थ करके व्यवहार निश्चयनय की अपेक्षा से अन्यवश मुनियों का लक्षण करके पांच गाथाओं द्वारा यह प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ।
यदि शुभभाव में और द्रव्य गुण पर्यायों में मन लगाने वाले भी अन्यवश हैं, तो आत्मवश कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं
___ अन्वयार्थ---(परभावं परिचत्ता अप्पाणं णिम्मलसहावं झादि) जो परभाव को छोड़कर निर्मलस्वभाव आत्मा को ध्याते हैं, (सो हु अप्पवसो होदि) वे ही