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नियमसार-प्राभूतं
जायते यद् देवमानवतिर्यगचेतन कृतोपसर्गे संजाते सत्यपि शीतोष्णदंशमशकयधादिपरीषहोपनिपातेऽपि च विज्ञानमेव न भवति, तदानीमेव तेऽनन्तभवसंचितकर्मपलालसमूहं क्षणेन भस्मसात् कुर्वन्ति ।
उक्तं च श्री पूज्यपाददेवेन —
परीषाद्य विज्ञाना बालवस्य निरोधनो । जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा' ॥
भगवत्श्रीपार्श्वनाथ संजयन्तमुनिगजकुमारपांडवादयो महापुरुषा एलाकुशा एवात्मवशा बभूवुः । प्रत्येक तीर्थंकरतीर्थकाले दशदशांतकृत्केवलिनोऽपि नानाविधोपसगँ जित्था केवलज्ञानं समुत्पाद्य मुक्तिलक्ष्म्यनन्तसौख्यमवाप्नुवन्, अतोऽसौ ध्यानरूपावश्यक क्रिया चतुर्थकालीनजिन कल्पिमुनीनामेवेति ज्ञात्वाऽस्मिन् काले यद् धर्म्यध्यानं सिद्धयति तस्यैवाभ्यासो विधेयः ॥ १४६॥
जाती है कि देव, मनुष्य, तियंच और अचेतन के द्वारा किये गये उपसर्ग के आने पर भी और शीत, उष्ण, दंशमशक, वध आदि परीषहों के आ जाने पर भी उसका ज्ञान भी नहीं होता है । तभी वे अनंत भवों में संचित कर्मरूप पलालसमूह-तृण
समूह को क्षणमात्र में भस्मसात् कर देते हैं ।
श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है
परीषहों के आ जाने पर उनका भान न होने से अध्यात्मयोग के बल से आस्रव का निरोध करने वाली कर्मों की निर्जरा शीघ्र ही हो जाती है ।
भगवान् पार्श्वनाथ, संजयन्त मुनि, गजकुमार, पांडव आदि महापुरुष ऐसे ही आत्मवश थे । प्रत्येक तीर्थंकरों के तीर्थकाल में दश दश अंतकृत्केवली भी अनेक प्रकार के उपसर्गों को जीत कर केवलज्ञान उत्पन्न करके मुक्ति-लक्ष्मी के अनंतसुख को प्राप्त कर चुके हैं । इसलिये यह ध्यानरूप आवश्यक किया चतुर्थकालीन जिनकल्पी मुनियों के ही होती थी, ऐसा जानकर इस काल में जो धर्म्यध्यान सिद्ध हो सकता है, उसी का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ १४६ ॥
१. शृष्टोपदेश श्लोक २४ ।