________________
नियमसार-प्राभूतम् मात्मतत्त्वे तन्मयीभूत्वा निर्विकल्पध्यानं न करोति, सो वि अण्णव सो-सोऽपि मुनिरन्यवशो भवति । इत्थं के कथयन्ति ? मोहांधयारववगयसमणा एरिसय कहयंतिमोहनीयज्ञानदर्शनावरणान्तरायघातिकर्मविरहिताः श्रमणाः परमकेवलिनो दर्शनमो हवांतक्षपकवीतरागचारित्राविनाभाविपरमगणधरदेवा वा ईदृशं कथयन्ति ।
तद्यथा-निजशुद्धात्मस्वरूपेऽविसलस्थितौ संजातायां परद्रष्येभ्यो मनसो व्यापारो निरुध्यते, तबानीमेव निश्चयावश्यकक्रियाः घटन्ते । स्वात्मन्यव मन ऐकाग्यं लभेतास्य क उपायः ? इति चेदुच्यते, प्रागआगमविहिलपिंडस्थपरस्थप्रभूतिथ्यानाभ्यासरिदं मनो वशीकर्तव्यम्, यतोऽवः परपदार्थेभ्यो निवृत्य स्वस्मिन्नेव तिष्ठेत् ।
___उक्तं च श्रीपद्मनंगाचार्येणकिंतु सहज विमल केवलज्ञान दर्शन स्वरूप निज परमात्म तत्त्व में तन्मय होकर निर्विकल्प ध्यान नहीं करते हैं वे मुनि भी अन्यवश कहलाते हैं।
शंका-ऐसा कौन कहते हैं ?
समाधान-जिन्होंने मोहनीयकर्मरूपी अन्धकार का नाश कर दिया है ऐसे श्रमण कहते हैं। अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन धातिया कमों से रहित परमकेवली भगवान् श्रमण हैं अर्थवा दर्शनमोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले और वीतराग चारित्र से सहित गणघरदेव ऐसा कहते हैं ।
इसे ही विस्तार से कहते हैं-निजशुद्धात्मस्वरूप में अविचल स्थिति हो जाने पर परद्रव्यों से मन का व्यापार रुक जाता है तभी निश्चय आवश्यक क्रियायें घटती हैं।
शंका-अपनी आत्मा में ही मन एकाग्न हो जावे ऐसा क्या उपाय हैं ?
समाधान--सो ही कहते हैं, पहले आगम में कहे हुए पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान के अभ्यास से यह मन वश में करना चाहिये कि जिससे यह परपदार्थों से हटकर अपने में ही स्थित हो जावे ।
श्री पद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है