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नियमसार-प्राभूतम् सव्वविअप्पाभावे-सर्वशुभाशुभविकल्पानामभावे । जो दु साहू अप्पाणं जजदे-यस्तु महातपोधनः साधुः शखोपयोगयुक्तनिजकारणपरमाणस्वरूपनिजात्मानं युक्ति । सो जोगभत्तिजुत्तो-स एव निश्चययोगक्तियुक्तो भवति, तस्यैवात्मानुष्ठाननिष्ठस्य परमयोगभक्तिः सिद्धचति । इदरस्य य जोगो किह हवे-इतरस्प नानासंकल्पविकल्पकलुषितचित्तयुक्तस्य मुनेः योगः आतापनादियोगैः साध्यो निर्विकल्पध्यानरूपपरमयोगः कथं भवेत् ? न कथमपि इति तात्पर्यार्थः ।
तद्यथा—यस्मिन्नध्यात्मध्याने पिंडस्थपदस्थरूपस्थरूपातीतविकल्पानामप्यभावात् शुद्धबुद्ध नित्यनिरंजनपरमानन्दलक्षणस्वशुद्धास्मन्यपयुक्तत्वात् च निर्विकल्पपरमसमाधिर्वर्तते तत्र तु विषयकषायाणां लेशोऽपि अवकाशो नास्ति । यद्यपि तदानीमिन्द्रियसुखं नास्ति, तथापि निजशुद्धात्मानुभवजन्यपरमाहादसुखामृतपानसतृप्तयोगिनः किमप्यद्भुतमेवानन्दमनुभवन्ति।
से युक्त हैं। (इदरस्स य किह हवे जोगो) इनसे विपरीत मुनि के योग कैसे हो सकता है ? ॥१३८||
टीका-जो महातपोधन साधु शुभ-अशुभ विकल्पों के अभाव में शुद्धोपयोग में युक्त निज कारणपरमात्मस्वरूप निज आत्मा को लगाते हैं, वे ही निश्चय योगभक्ति से युक्त होते हैं। अर्थात् उन्हीं आत्मा के अनुष्ठान में तत्पर हुए मुनि के परमयोग भक्ति सिद्ध होती है। किंतु इतर-नानाप्रकार के संकल्पविकल्प से कलुषित चित्त वाले मुनि के योग-आतापन आदि बाह्य योगों से साध्य निर्विकल्प ध्यानरूप परमयोग कैसे हो सकता है ? अर्थात् कथमपि नहीं हो सकता है ।
___ इसी का और विस्तार करते हैं—जिस अध्यात्म ध्यान में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत विकल्पों का भी अभाव होने से और शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, परमानंद लक्षण अपनी शुद्ध आत्मा में उपयोगयुक्त होने से निर्विकल्प परमसमाधि होती है। वहाँ पर विषय कषायों का लेश भी अवकाश नहीं है। यद्यपि उस समय इन्द्रियसुख नहीं है फिर भी निजशुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुए परमाह्लादमय सुखरूपी अमृत के पान से संतृप्त हुए योगिराज कोई एक अद्भुत ही आनंद का अनुभव करते हैं ।