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नियमसार-भूत क्रमणक्रिया, प्रतिदिनमाहारानन्तरं चतुर्विधाहारत्यागस्तपोभावनयान्यस्यापि वस्तुनस्त्यागः प्रत्याख्यानक्रिया, तथा बीरभक्तिस्वाध्यायवन्दनायिक्रियाकरणे सप्तविंशत्याधुच्छ्वासगणनया महामन्त्रजपनं कायोत्सर्गक्रिया। एतां व्यवहारावश्यकक्रियां यथासमयं विवधानस्य साधोर्मूलगुणैः सार्धमावश्यकापरिहाणिनामधेया भावनापि जायते, या च तीर्थंकरप्रकृतिबंधफारणभूता भवति । तयापीमाः पंचपरमेष्ठिश्रुततोर्यादीनाश्रित्य वर्तन्तेऽत एव व्यवहारक्रिया उच्यन्ते । फिंच, निश्चयक्रियाः सर्वथा स्थाश्रया एव भवन्ति । इत्थमबबुद्धधैर्दयुगीनैः साधुभिरपि निश्चयपरमावश्यकसिद्धार्थ स्वस्वपदानुसारेणावश्यक कर्तव्यमेव ॥१४१॥
अधुनावश्यकस्य निरुक्ति कथयन्स्माचाम देवाः•ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा ।
• जुत्ति ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥१४२॥ रात्रिक आदि सात प्रकार के प्रतिक्रमण में 'जीवे प्रमादजनिताः' इत्यादि रूप से उस पाठ का करना 'प्रतिक्रमण' क्रिया है । प्रतिदिन आहार के अनन्तर चतुर्विध आहार का त्याग करना और तप की भावना से अन्य भी वस्तु का त्याग करना 'प्रत्याख्यान किया है । तथा वीरभक्ति में, स्वाध्याय और बंदना आदि क्रिया के करने में सत्ताईस आदि उच्छ्वास की गणना से महामंत्र का जाप करना'कायोत्सर्ग' क्रिया है। इन व्यवहार आवश्यक क्रियाओं को समय के अनुसार करने वाले साध के मल गुणों के साथ "आवश्यक अपरिहाणि" नाम की भावना भी होती है, जो कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारणभूत हो जाती है। फिर भी ये क्रियायें पंचपरमेष्ठी, श्रुत और तीर्थ आदि के आश्रय से होती हैं, इसलिये ये ब्यवहार क्रिया कहलाती हैं। क्योंकि निश्चय क्रियायें सर्वथा अपनी आत्मा के आश्रित ही होती हैं। ऐसा जानकर आजकल के साधुओं को भी निश्चय परम आवश्यक की सिद्धि के लिये अपनेअपने पद के अनुसार आवश्यक क्रियायें करते ही रहना चाहिये ॥१४१॥
अब आचार्यदेव आवश्यक शब्द की निरुक्ति करते हैं
अन्वयार्थ-(ण वसो अवसो) जो वश में नहीं वह अवश है। (अबसस्स कम्म बावस्सयं ति बोधव्वा) उन अवश की क्रिया आवश्यक है, ऐसा जानना चाहिये। १. णिवेत्ती वा पाठो दृश्यते क्वचित् ।