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नियमसार-प्रामृतम् ण वसो अवसो-न वशः अवशः यो जितेन्द्रियो मनिः मनसः शिष्यपरिकरस्य वा वशे न याति स एवावश उच्यते । अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वातस्य अवशस्य मुनेः कर्म क्रिया भावो वा आवश्यक भवति इति बोद्धव्यम् । जुत्ति त्ति उवाअंति य-युक्तिरिति उपाय इति एकार्थवाची शब्दः । णिरवयवो होदि णिज्जुती'-निरवयत्रो नियुक्तिर्भवति ।
इतो विस्तरः-मूलाचारे टोकाकारः कथितं द्रष्टव्यमस्ति । तद्यथा
"न वश्यः पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषस्कषायरागद्वेषादिभिरनात्मीयकृतस्तस्यावश्यकस्य यस्कर्मानुष्ठानं सदावश्यकमिति बोद्धष्यं ज्ञातव्यम् । युक्तिरिति उपाय इति चैकार्यः । निरवयवा संपूर्णाऽखंडिता भवति नियुक्तिः। आवश्यकानां नियुक्तिरावश्यकनियुक्तिः, आवश्यफसंपूर्णोपायः । अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्थावबोधकं पृथक-पृथक स्तुतिस्वरूपेण “जयति भगवानित्यावि" प्रतिपावकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यक नियुक्तिरित्युच्यते। सा च षट्प्रकारा भवति ।"
(जुत्ति ति उवाअंति य) युक्ति और उपाय एकार्थवाची हैं । (णिरवयवो होदि णिज्जुत्तो) उपाय का परिपूर्ण होना नियुक्ति है।
टीका-जो वश नहीं वह अवश है। यहाँ नञ् समास हुआ है । जो जितेन्द्रिय मुनि मन अथवा शिष्य परिकर के वश में नहीं होते हैं, वे ही अवश कहलाते हैं । उन अवश मुनि की क्रिया या भाव ही आवश्यक हैं ऐसा जानना चाहिये । युक्ति और उपाय ये एकार्थवाची शब्द हैं । निरवयव ही नियुक्ति है।
इसका विस्तार करते हैं—-मूलाचार में इस गाथा को टीका में टीकाकार श्री वसुनंदि आचार्य ने जो कहा है, वह देखने योग्य है । उसे कहते हैं जो पापादि के वश में नहीं है, वह 'अवश्य' है । जो इन्द्रिय, कषाय, नव नोकषाय, राग, द्वेष आदि को आत्मसात् नहीं करता है, उस 'अवश्यक' मुनि का जो कर्म अर्थात् अनुष्ठान है, वह “आवश्यक' है, ऐसा जानना चाहिये । युक्ति और उपाय' इनका एक ही अर्थ है । निरवयव अर्थात् इनका संपूर्ण अखंडित होना ही नियुक्ति है । आवश्यक क्रियाओं की नियुक्ति आवश्यक नियुक्ति है, अर्थात् आवश्यक का संपूर्ण उपाय है । अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है, उसको बतलाने वाले पृथक् पृथक स्तुतिरूप से
१. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गापा ५१५ । यह पाया नियमसार के सदृश ही है।