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नियमसार-प्रामृतम् कस्य साधोरावश्यकक्रिया न भवतीति थप पूरिया.वदि जो सो समणो, अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्म, आवस्सयलक्खणं ण हवे ॥१४३॥
जो समणो असुहभावेण वट्टदि-यः कश्चित् श्रमणो दिगंबरवेषधारी मुनिः विषयकषायहिंसाऽनतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेषु मध्ये कतितमेनापि अशुभभावेन वर्तते, अथवा कृष्णनोलकापोताघशुभलेश्यायुक्तो भवति, सो अण्णवसो होदि-स मुनिर्भूत्वापि अन्यवशो भवति । तम्हा तस्स दु कम्मं तस्मात् हेतोः तस्य साधोस्तु कर्म क्रियानुष्ठानं च, आबस्सयलक्खणं ण हवे-आवश्यकक्रियाया लक्षणं न भवेत् ।।
इतो विस्तर:-"पुलाकबकुशकुशीलनिग्रन्थस्नातका निर्धन्याः ॥४६॥"
इति सूत्रकथितप्रकारेण निर्ग्रन्थदिगम्बरमुनयः पंचविधा भवन्ति प्रत्येक तीर्यभृतां तीर्थकाले । येषु उत्तरगुणभावनारहिता व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् दोषं कुर्वन्ति, ते पुलाकमुनयः । ये तान्यखण्डयन्तो शरीरसंस्कारर्द्धिसुखयशोविभूतिषु
किस साधु के आवश्यकक्रिया नहीं होती, आचार्यदेव यह बतलाते हैं
अन्वयार्थ-(जो समणो असुहभावेण वट्टदि) जो श्रमण अशुभभाव से वर्तन करते हैं, (सो अण्णयसो होदि) वे अन्यवश होते हैं । (तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलखणं ण हवे) इसलिये उनकी क्रिया आवश्यक लक्षण नहीं होती।
___ टीका- जो कोई दिगंबर वेषधारी मुनि विषय, कषाय, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह में से किन्हीं भी अशुभ भाव से प्रवृत्ति करते हैं, अथवा कृष्ण नील, कापोत आदि अशुभ लेश्याओं से सहित होते हैं, वे मुनि होकर भी अन्यवश हो जाते हैं । इसलिये उन साधु की क्रिया अर्थात अनुष्ठान आवश्यक क्रिया का लक्षण नहीं होता।
इसी को विस्तार से कहते हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, निर्मथ दिगंबर मुनि के ये पांच भेद हैं। ये पांचों प्रकार के मुनि प्रत्येक सीर्थंकरों के तीर्थ काल में होते हैं । इनमें से जो उत्तर गुणों की भावना से तो रहित है, व्रतों में भी कदाचित् किसी काल में दोष लगा देते हैं, वे पुलाक मुनि हैं । जो मूल व्रतों में तो विराधना नहीं करते, किंतु शरोर-संस्कार, ऋद्धि, सुख, यश और १. तत्त्वार्थसूत्र, अ० १, सूत्र ४६