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नियमसार-प्राभृतम् णियलेसे केवकिंगविरहे णिषकमणपदिकल्लाणे। परखतं संवित्त, जिजिणधरवंबणळे व ॥२३६॥ उत्तमअंगम्हि हवे, धाविहीतं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं, हत्थपमाणं पसत्युदयं ॥२३॥ अव्याघावी अंतो मुहत्तकालट्ठिदी जहण्णिवरे।
पज्जतोसंपुष्णे, मरणं पि कदाचि संभवई ॥२३८॥ इति ज्ञात्वा प्रागावश्यफक्रियां परिपूरयितुं पंचपरमेष्ठयादिनवदेवता अवलंब्य प्रवृत्तिर्विधेया भवति, पश्चात् स्वात्माश्रितानुष्ठानबलेन निश्चयावश्यकं परिपूरणीयं भवति ||१४२।।
से आहारक शरीर होता है । अपने क्षेत्र में केवली और श्रुतकेवली का अभाव होने पर, किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदारिक शरीर से उस समय वहाँ पहुंचा नहीं जा सकता, केवली या श्रुतकेवलो के विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याण आदि तीन कल्याणकों में से किसी के भी होने पर तथा जिन-जिनगृह चैत्यचैत्यालयों की बंदना के लिये भी आहारक ऋद्धि वाले गुणस्थानबर्ती प्रमत्त मुनि के आहारशरीर नाम कर्म के उदय से यह आहारकशरीर उत्पन्न हुआ करता है। यह रसादि धातु और संहननों से रहित तथा समचतुररस्र संस्थान से चंद्रकांत मणि के समान श्वेत, शुभ नामकर्म के उदय से शुभ अवयवों में युक्त होता है । यह एक हाथ प्रमाण और प्रशस्त कर्म के उदय से उत्तमांग-शिर में से उत्पन्न होता है। यह व्याघातरहित, सूक्ष्म है, अंतर्मुहूर्त काल की स्थिति वाला है । अर्थात् इसकी जघन्य • और उत्कृष्ट स्थिति अंतमुहूर्त मात्र ही है । आहारक-शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने पर कदाचित् आहारक ऋद्धिवाले का मरण भी हो सकता है।"
ऐसा जानकर पहले आवश्यकक्रिया को पूर्ण करने के लिये पंचपरमेष्ठी आदि नव देवताओं का अवलंबन लेकर प्रवृत्ति करना उचित है, पश्चात् अपनी आत्मा के आश्रित अनुष्ठान के बल से निश्चय आवश्यकों को परिपूर्ण करना उचित है ।।१४२॥
१. गोम्मटसारजीवकार, योगमार्गणाधिकार ।