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नियमसार-प्रामृतम् तात्पर्यमेतत्-केचित् परमयोगीश्वराः स्वावश्यकक्रियामाचरन्तः चारणर्द्धघादिबलेनाकृत्रिमजिनचैत्यालयं वदन्ते । केषांचिदाकाशगमद्धिविरहितानां महामुनीनामाहारकशरीरमपि जिनवन्दनार्थ निर्गच्छति, एतादृशानामेव वंदनाथावश्यकक्रियाः पूर्णा भवन्ति ।
ननु आहारकर्द्धिसमन्वितस्य मुनेः कस्मिश्चित् सूक्ष्मतत्त्वे शंकायामाहारकशरीरं निर्गच्छतीति श्रूयते । पुनः तेन सूधमशरीरेणाकृत्रिमचैत्यालयवन्दना कथं भवेत्, इति चेदुच्यते । सूठमशरीरेणापि यथा तत्त्वशंकायाः समाधानं जायते, तथैव जिनगृहबंदनादीक्षादिकल्याणकदर्शनानन्दोऽपि भवति । इदमेव श्रीनामचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तिदेवैः कथितं गोम्मटसारजीवकाण्डग्रन्थे--
आहारस्सुदयेण य, पमत्तविरदस्स होवि आहारं।
असंजमपरिहरणटुं, संदेहविणासणटुं च ॥२३५॥ "जयति भगवान्" इत्यादि को प्रतिपादित करने वाला जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र है वही आवश्यक-नियुक्ति कहलाता है। वह पाचश्यक छ कार का है."
तात्पर्य यह हुआ कि कोई परम योगीश्वर अपनी आवश्यक क्रियाओं को करते हुये चारणऋद्धि आदि के बल से अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना करते हैं, किन्हीं आकाशगमन ऋद्धि से रहित महामुनियों के आहारक शरीर भी जिनवंदना के लिये निकल सकते हैं । ऐसे ही मुनियों की बंदना आदि आवश्यक क्रियायें पूर्ण होती हैं।
शंका--आहारक ऋद्धि से समन्वित मुनि को जब किसी सूक्ष्म तत्त्व में शंका होती है, तभी आहार-शरीर निकलता है, ऐसा सुना जाता है । पुनः उस सूक्ष्मशरीर से अकृत्रिम चैत्यालय की वंदना कैसे हो सकती है ?
समाधान-सो ही कहते हैं । सूक्ष्म शरीर से भी जैसे तत्त्व शंका का समाधान हो जाता है, वैसे ही जिनमंदिर की वंदना तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि के देखने का आनंद भी हो जाता है । इसी बात को श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती महा. मुनि ने गोम्मटसार जीवकांड में कहा है
असंयम का परिहार करने के लिये तथा संदेह को दूर करने के लिये आहारकऋद्धि के धारक छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारशरीर नाम कर्म के उदय