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नियमसार-प्राभृतम् कम्मविणासण जोगो णिचुदिमग्गो-कर्मणां विनाशने क्षमो यः कश्चिद् योगो मनोवाकायप्रवृत्तिः परमसमाधिलक्षणनिर्विकल्पध्यानं था स एव निर्वृतिमार्गो मोक्षप्राप्त्युपायो भवति । इमाश्च व्यवहारक्रियाभिः साध्या निश्चयावश्यकक्रिया एव कर्मविनाशनकुशलास्ततो मोक्षमार्गोऽपि ता एव । ति पिज्जुत्तो-इति अनेन प्रकारेण गणपराविवेवैः प्ररूपितो न च रथ्यापुरुषः ।
इतो विस्सरः--अहोरात्रं साधुभिरवश्यमेव कर्तव्या याः काश्चित् क्रियास्ता एवावश्यफक्रियाः कश्यन्तै । इमाः पट भारत भीत : उक्तं च मूलाचारे
लामाइय परवीसत्यव वंधणयं पडिक्कमणं ।
पच्चक्खाणं च तहा काओसम्गो हववि छटो ॥ सर्वसत्त्वेषु समभावं धारयित्वा त्रिकालदेववन्दनाकरणं सामायिकक्रिया, कृतिकर्मविधेरन्तर्गतचतुविशतितीर्थकराणां "थोस्सामि" इत्यादिना स्तवनं स्तवक्रिया, देवश्रुतगुर्वादीनां जयति भगवान् हेमाम्भोजेत्यादि पठन् वन्दनाकरणं वन्दनाक्रिया, देवसिकरात्रिकाविसप्तविधप्रतिक्रमणे "जीवे प्रमावनिताः" इत्याविना तत्करणं प्रति
समाधान-कर्मों के विनाशन में समर्थ जो कोई योग, अर्थात मन वचन काय की प्रवृत्ति, अथवा परम समाधि लक्षण निर्विकल्प ध्यान है, वही निर्वाणमार्ग मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है और ये व्यवहार आवश्यक क्रियाओं से साध्य निश्चय आवश्यक क्रियायें हो कर्मविनाशन में कुशल हैं, इसलिये मोक्षमार्ग भी ये ही हैं । इस प्रकार से गणधरदेव आदि ने प्ररूपण किया है, न कि रास्ता चलते पुरुषों ने ।
इसी प्रकार विस्तार करते हैं---अहोरात्र साधुओं के द्वारा अवश्य ही करने योग्य जो कोई क्रियायें हैं, वे ही आवश्यक क्रिया कहलाती हैं । ये छह प्रकार की होती हैं। मूलाचार में कहा है--
. सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह क्रियायें हैं।
सभी जीवों में समताभाव धारण करके त्रिकाल देवबंदना करना 'सामायिक' क्रिया है । कृतिकर्म विधि के अन्तर्गत चौबीस तीर्थंकरों की 'थोस्सामि' इत्यादिरूप से स्तुति करना 'स्तव' क्रिया है । देव, श्रुत, गुरु आदि का 'जयति भगवान् हेमाम्भोज' इत्यादि पढ़ते हुये बंदना करना 'वंदना' किया है। देवसिक,