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नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्री कुंवकुंददेवेरेव योगिभक्तेरंचलिकायां
अदाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु आदावणरुक्खमूलअब्भोवासठाणमोणवोराहणेकपासकुक्कुडासणचउत्थपखखवणादिजोगजुत्ताणं सन्नसाहूणं णिच्चकालं अञ्चेमि पूजेमि, बवामि णमंसामि ।
ईग्योगधारिणो मुनेः वन्दनां गुर्वादयोऽपि योगक्ति पठन्तस्तस्य प्रदक्षिणां विदधानाश्च कुर्वति नैतत्पूज्यपूजाव्यतिक्रमो मन्यते प्रत्युत गुण एव । उक्तं चानगारधर्मामृतग्रन्थे---
लघीयसोऽपि प्रतिमायोगिनो योगिनः क्रियाम् ।
कुर्युः सर्वेऽपि सिद्धर्षिशान्तिभक्तिभिरादरात् ॥ प्रतिमायोमिनो-विनं यावदभिसूर्य कायोत्सर्गावस्थायिनः । लधीयसोऽपि-दीक्षया लघुतरस्यापि । श्रीकुन्दकुन्ददेव ने ही योगभक्ति की अंचलिका में कहा है
'ढाई द्वीप, दो समुद्रों में, पंद्रहकर्म भूमियों में, आतापन, वृक्षमूल, अभ्राबकाश स्थान, मौन, वीरासन , एक पाव, कुक्कुटआसन, चतुर्थ, पक्ष, मास उपवास आदि योग से युक्त सर्व साधुओं को नित्यकाल मैं अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ और नमस्कार करता हूँ।'
ऐसे योग धारी मुनि की वंदना गुरु आदि भी योगभक्ति पढ़ते हुए और उनकी प्रदक्षिणा देते हुए करते हैं। यह पूज्य पूजा का व्यतिक्रम नहीं माना जाता है, प्रत्युत गुण ही माना जाता है।
... अनगारधर्मामृत ग्रन्थ में कहा भी है--
लघु भी प्रतिमायोग में स्थित योगी की सभी योगीजन सिद्ध, योग और शांति भक्ति पढ़कर आदर से क्रिया---वंदना करें । टीका में कहा है कि पूरे दिन सूर्य की तरफ मुख करके कायोत्सर्ग में स्थित दीक्षा से छोटे भी मुनि की दीक्षा में बड़े मुनि वंदना करते हैं।
१, योगभक्ति
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