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नियमसार-प्राभृतम् ये केचिवपि भव्योत्तमाः प्रथमतः काललब्ध्यादिबलेन अशुभमनोवाक्काययोगानां निग्रहं कृत्वा व्यवहारयोगभक्त्या चतुर्थगुणस्थानात् शुभयोगमारभ्य प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानावुपरि निश्चयपरमयोगभक्त्या शुद्धयोगेन शुद्धयन्तः केवलिनो भूत्वोत्कृष्टेन किधिधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वकोटिवर्षायुःपर्यन्तं विहृत्यासंख्यभव्यजीयान् संबोध्य पश्चात् कायवाङ्मनोयोगं निरुद्धय विगतयोगाः सिद्धा भवन्ति, स एवानंतानंतकाल नित्यनिरंजनपरमानन्दस्वरूपानन्तज्ञानवर्शनसुखवीर्याधनवधिगुणयुंजीभूताः कृतकृत्या भवन्ति ।
तात्पर्यमेतत्-परमयोगभक्त्यैव योगनिरोधसामयं समुत्पद्यते, तथा च व्यवहारयोगिनन्त योगभविष्टः साध्या समोरिस हवा योगनिरुद्धास्तीर्थकरा निजमनोयोगे परमभक्त्या भया निधीयन्ते । के के तीर्थकराः कियत्कियदिवसं योगनिरोधं विवध्युः ?
आद्यश्चतुर्दशदिनविनिवृत्तयोगः, षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्द्धमानः। शेषा विधूतघनकर्मनिबद्धपाशाः मासेन ते यतिवरावभवन्वियोगाः ॥
जो कोई भी भव्योत्तम प्रथम ही काललब्धि आदि के बल से अशुभ मन वचन काय योगों का निग्रह करके व्यवहार योगभक्ति से शुभयोग को प्रारम्भ करके प्रमत्त, अप्रमत्त गुणस्थानों से ऊपर निश्चय परमयोगभक्ति से शुद्ध योग के द्वारा शुद्ध होते हुये केवली होकर उत्कृष्ट से कुछ अधिक आठ वर्ष कम, पूर्वकोटि वर्ष की आयु पर्यंत विहार कर असंख्य जीवों को सम्बोधित करके पश्चात् काय वचन मन के योग का निरोध करके योगरहित सिद्ध होते हैं, वे ही अनन्तानन्त काल तक नित्य, निरंजन, परमानन्द स्वरूप, अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों के पुंजरूप होकर कृतकृत्य हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि परम योगभक्ति से ही योगनिरोध की सामर्थ्य उत्पन्न होती है और योगिभक्ति से योगभक्ति साध्य होती है, ऐसा जानकर योगनिरोध करनेवाले तीर्थंकरों को अपने मनोयोग में मैं परमभक्ति से स्थापित करता हूं।
प्रथम तीर्थकर आदिनाथ भगवान ने चौदह दिन का योगनिरोध किया था, महावीर भगवान् ने दो दिन का योगनिरोध किया था। घन कर्मों के दढ
१. संस्कृतनिर्वाणभक्ति, श्लोक २६ ,
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