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नियमसार-प्राभृतम् इत्थं सिद्धसाक्षिदीक्षानणभवप्राप्तेभ्यः परमयोगभक्तिपरिणतपरमानन्दनिर्वृतिभक्तिस्वरूपपरमदेवेभ्यो वृषभादिवर्द्ध मानेभ्यः सततं मे नमोऽस्तु परमनिर्वृति सुखाप्तये।
आ निवासारण पराभवत्यविशारे पूर्वोक्तबीज गाथात्रयेण परमनियंतिपदकारणभूतपरमनिर्वाणभक्तिकथनप्रधानत्वेन, तपनु गाथाचतुष्ट येन परमयोगभक्तिस्वरूपतत्स्वामिप्रतिपावनपरत्वेन सप्तभिर्गाथासूत्रैरन्तराधिकारद्वयं समाप्तम् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसारप्राभूतग्रन्थे शानमत्यायिकाकृतस्याद्वादचंद्रिकानामटीकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये परमभक्तिनामा
वशमोऽधिकारः समासः।।
पाश को नष्ट करनेवाले शेष बाईस तीर्थंकर एक माह का योगनिरोध करके योगरहित-शरीररहित अशरीरी सिद्ध हुये हैं।
_____ इस तरह सिद्धसाक्षो से दीक्षाग्रहण करने के भव को प्राप्त करनेवाले, परमयोगभक्ति से परिणत परमानन्दमय निर्वाणभक्ति स्वरूप परमदेव ऋषभदेव से लेकर वर्द्धमान पर्यंत सर्व चौबीस तीर्थंकरों को परमनिर्वाणसुख की प्राप्ति के लिये मेरा नमोऽस्तु होवे ॥१४॥
इस नियमसार ग्रंथ में परमभक्ति अधिकार में पूर्वोक्त क्रम से तीन गाथाओं द्वारा परमनिर्वाण के लिये कारणभूत परमनिर्वाण-भक्ति कथन की प्रधानता है । पश्चात् चार गाथाओं द्वारा परमयोग-भक्ति का स्वरूप और उसके स्वामी के प्रतिपादन की मुख्यता है। इस प्रकार सात गाथासूत्रों द्वारा दो अन्तराधिकार पूर्ण हुये हैं। इस प्रकार श्री भगवान् कुंदकुंदाचार्यप्रणीत नियमसार-ग्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आर्यिकाकृत स्याद्वादचन्द्रिका नाम की टीका में निश्चयमोक्षमार्ग महाधिकार
के अन्तर्गत यह परमभक्ति नाम का दशम अधिकार पूर्ण हुआ।