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नियमसार-प्रामृत
४०३ तद्यथा---ये भन्यवरपुंडरीकाः षट्चस्वारिंशद्गुणातिशयपरिपूर्णाहन्त्यलक्ष्मीसमन्वितसर्वज्ञवीतरागतीर्थकरपरमदेवमुखकमलविनिर्गतदिव्यध्वनिश्रवणघारणसमर्थ - सप्तद्धियुतगुणभृद्गणधरथितपरमागमकथितषद्रव्यपंचास्तिकायसप्ततस्वनवपदार्थ - रूपसम्यक्तरवेषु विपरीतदुराग्रहं त्यक्त्वा व्यवहारसम्यक्त्वबलेन साध्यं स्त्रशुद्धारमरुधिरूपनिश्चयसम्यक्त्वम्, तेन सहिता द्वावशांगश्रुतज्ञानबलेन स्वपरभेदविज्ञानरूपनिश्चयज्ञानधारिणस्तथैव पंचमहानतबलेन स्वरूपाचरणधारित्रमधिष्ठिता निग्रंथविगबराः परमसाधवः शुद्धजीवतत्त्वेषु सप्ततत्त्वेषु वा स्वात्मानं युजन्ति, तेषामेव परमपारिणामिकभावस्वरूपनिजभावो योगशब्देनोच्यते।
___किंच ये केचित् प्रारब्धयोगिनस्तेषां प्रारम्भावस्थायां कदाचित् स्थैर्याभावेन कष्टं प्रतीयते तथाऽपि तदवगण्य तैर्योगाभ्यासे सर्वप्रयत्लो विधातव्यो भवति ।
उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवेन
उस ही कहते हैं-छयालीस गुणों के अतिशय से परिपूर्ण समवसरण की विभूति से समन्वित सर्वज्ञ तीर्थंकर परमदेव के मुख कमल से निकलो हुई दिव्य. ध्वनि को सुनकर, उसे धारण करने में समर्थ, सातों ऋद्धियों से युक्त, गुणों के भंडार ऐसे गणधर देव के द्वारा गूथे गये परमागम में छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ ये समीचीन तत्त्व कहलाते हैं । जो श्रेष्ठ भव्य जीव इन तत्त्वों में दुराग्रह को छोड़कर व्यवहार सम्यक्त्व के बल से साध्य अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व से सहित, द्वादशांग श्रुतज्ञान के बल से स्वपर भेद विज्ञानरूप निश्चयज्ञान के धारी उसी प्रकार पांच महाव्रत के बल से स्वरू. पाचरण चारित्र में अधिष्ठित हैं वे निग्रंथ दिगंबर परमसाधु शुद्धजीव तत्वों में में अथवा सात तत्त्वों में अपनी आत्मा को उपयुक्त करते हैं उन्हीं का परमपारिणामिक भावस्वरूप निज भाव योग शब्द से कहा जाता है।
दूसरी बात यह है कि जो कोई प्रारंभिक योगी हैं उनको प्रारम्भ अवस्था में कदाचित् स्थिरता का अभाव होने से कष्ट प्रतीत होता है फिर भी उसको न कुछ गिनकर उन्हें योग के अभ्यास में सर्वप्रयत्न करना उचित है ।
श्रीपूज्यपादस्वामी ने कहा भी है