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नियमसार-प्राभृतम् एतत्क्रमेण त्रिकालं सामायिक कर्तव्यं समाहितमनसा भवता मुनिपुंगवेन श्रावकश्चाप्यभ्यासभावेन ।
नमोऽस्तु चारित्रचक्रवतिकलिकालदोषदूरकरणदक्षपरमसमाधिभावनापरिणतायानेकशिष्यप्रशिष्यजनकाय मार्षपरम्पराविच्छिन्नकराय श्रीशांतिसागरसूरिवर्याय मे स्वसमाधिसिद्धयर्थमेव।
एवं "विरदो सब्यसावज्जे" इत्यादिना निर्मन्यदिगम्बरमुनेः स्वरूपं तस्यैव स्थायिरूपेण परमार्थसामायिकप्रतिपादनपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि, तवन "जस्स रागो दु" इत्यादिना रागाविभावदुनिपुण्यपापहास्थादिनवनोकषायप्रभृतिविकारभावापाकरणप्रेरणापरत्वेन अष्टसूत्राणि गतानि, ततः "जो दु धम्म' इत्यादिना धर्म्यशुक्लनिर्मलध्यानपरिणतसाघोरेव सामायिकनाम्ना परमसमाधिः स्यादिति कथनमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति नवभिः गाथासूत्रैः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः।
इस क्रम में तीनों काल-संध्या में एकाग्रमन होकर मुनिराजों को सामायिक करना चाहिये तथा श्रावकों को भी अभ्यास के भाव से करते रहना चाहिये ।
___ कलिकाल के दोष को दूर करने में कुशल, परमसमाधि भावना से परिणत, अनेक शिष्य प्रशिष्यों के जनक, आर्षपरंपरा को अविच्छिन्न करने वाले, चारित्रचक्रवर्ती ऐसे आचार्यवर्य श्री शांतिसागर सूरिवर्य को मेरा अपनी समाधि की सिद्धि के लिए नमोस्तु होवे।
इस तरह "विरदो सब्यसावज्जे" इत्यादिरूप से निग्रंथ दिगम्बर मुनि का स्वरूप और उन्हों के स्थायी रूप से परमार्थ सामायिक होतो है, ऐसा प्रतिपादन करने वाले तीन सूत्र हुये हैं। पुन: "जस्स रागो दु" इत्यादि रूप से रागादिभाव, दुर्ध्यान, पुण्यपाप और हास्यादि नव नोकषायों आदि विकार भावों को दूर करने के लिये आठ सूत्र कहे गये हैं। इसके बाद "जो दु धम्म' इत्यादि रूप से धर्म्य शुक्लरूप निर्मल ध्यान में परिणत हुये साधु के ही सामायिक नाम से परमसमाधि हाती है, ऐसे कथन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ है। इस प्रकार इन नब गाथासूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ है ।