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नियमसार-प्राभृतम् बन्दनायां च सिद्धश्रुतचारित्रयोगिनिर्वाणशांतिभक्तयश्चासां विस्तर आचारसारान. गारधर्मामतादिग्रन्थाद् ज्ञातव्यः । अत्रापि सम्यक्त्वज्ञानचारित्रस्वरूपरत्नत्रयभक्तों श्रतचारित्रभक्ती अंतर्भवतः, मोक्षप्राप्तपुरुषभक्तौ सिद्धचतुविशतितीर्थङ्करपंचगर्वाचार्यबीरशांतिभक्तयो लोयन्ते । आचार्योपाध्यायसाधूनां भक्तिः भाविनगमनयेन निर्वाणभक्तौ लीयते । चैत्यनन्दीश्वरभक्तो सिद्धपुरुषाणां प्रतिकृतिस्तवनेत निर्वाणभक्तो एव, निर्वाणभक्तिस्तु अत्र विद्यते। अग्रेतनगाथाकथितयोगभक्तौ योगसमाधिभक्ती अन्तर्भवतः । एवंविधिना सर्वा अपि भक्तयो निर्वाणयोगभक्त्योरेव लीयन्ते । व्यवहारनिर्वाणक्ति कुणिः देवः भक्त्या स्तवनं कृतं द्रष्टव्यम् । तद्यथा--
जे जिणु जित्थु तत्था, जे दु गया णिदि परमं ।
ते बंदामि य णिच्चं, तियरणसुद्धो णमंसामि॥ भक्ति ये चार भक्तियाँ की जाती हैं । निर्वाण कल्याणक क्रिया में और निर्वाणक्षेत्र की वन्दना करने में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगी, निर्वाण और शान्ति भक्तियाँ करनी चाहिये । इन सभी क्रियाओं में भक्तियों का विस्तार आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों से जानना चाहिये ।
यहाँ पर भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप रत्नत्रयभक्ति में श्रत और चारित्र भक्ति अन्तर्भूत हो जाती है । मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्धों की भक्ति में सिद्ध भक्ति, चतुर्विशतितीर्थंकर भक्ति, पंचगुरुभक्ति, आचार्य भक्ति, बीरभक्ति
और शान्ति भक्ति ये भक्तियां शामिल हो जाती हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधओं को भक्ति भावी नेगमनय से निर्वाण भक्ति में लीन हो जाती है। चैत्यभक्ति
और नन्दीश्वर भक्ति सिद्धों, तीर्थंकर आदि की प्रतिमाओं के स्तवनरूप से निर्वाण भक्ति में ही अन्तर्भूत हैं और निर्वाणभक्ति तो निर्वाणभक्ति में अन्तर्भूत है ही है। आगे की गाथाओं में कही गई योगभक्ति में योगभक्ति और समाधिभक्ति अन्तर्भूत हैं। इस प्रकार ये सभी भक्तियाँ निर्वाणभक्ति और योगक्ति में ही लीन हो जाती हैं।
व्यवहार निर्वाणभक्ति को कहते हुए श्रीकुन्दकुन्ददेव के द्वारा भक्तिपूर्वक किया गया स्तवन देखने योग्य है । उसे ही कहते हैं---
जो-जो जिनराज जहाँ-जहाँ से परमनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, उनकी मैं नित्य ही बन्दना करता हूँ और मन वचन काय की शुद्धि से उन्हें नमस्कार करता हूँ। १. प्राकृतनिर्वाणभक्ति।