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नियमसार-प्राभृतम् स्तवनीयाश्च । अनया परमभक्त्या पापकर्मणां संवरोऽसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा सातिशयपुण्यबंधश्च आयते ।
अधुमा निश्चयनय सिमा निर्माणतिर व त्यामागी. मोक्खपहे अप्पाणं, ठविऊण य कुणदि णिवुदी भक्ती । तेण दु जीवो पावइ, असहायगुणं णियप्पाणं ॥१३६॥
य मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण णिव्वुदी भत्ती कुदि-यः कश्चित् तपोधनो भेदरलत्र यमयकारणकारणसमयसारपरिणतः सन केवलज्ञानदर्शनमयपरमानन्दलक्षण. निजात्मतत्त्वस्य सम्यकश्रद्धानं तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थितिरूपनिश्चयचारित्रं च सदेव कारणसमयसाररूपो निश्चयमोक्षपथस्तस्मिन् स्वात्मानं स्थापयित्वा निवतेः भक्ति करोति, परिपूर्णत्गभावनां भावयति अनुभवति स्वस्मिन्नेव स्थिरीभवति । तेण दु जीवो अमहायगुणं णि पाणं पाव इ-स एवायं जीवः तेन निमित्तेन तु नियमेन परनिमित्तानपेक्षस्वात्मजन्याप्तहायकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपानन्तगुणस्वभावं निजात्मानं प्राप्नोति ।
तीर्थस्थानों और उनकी प्रतिमाओं की भी परम आदर से बन्दना तथा स्तुति करने रहना चाहिये । इस परमभक्ति से पापकर्मों का संवर होता है, असंख्यातमुणश्रेणी कर्मों की निर्जरा होती है और सातिशय पुण्यबन्ध भी होता है ।
अब निश्चयनय की अपेक्षा से आचार्यदेव निर्वाणभक्ति को कहते हैं
अन्वयार्थ—(मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य णित्रुदी भत्ती कुणदि) जो मोक्षपथ में आत्मा को स्थापित कर निवृत्ति भक्ति करते हैं । (तेण दु जीवो असहायगुणं णियप्पाणं पावइ) इस हेतु से वे जीव असहाय-केवलज्ञानगुण स्वरूप निज आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं ॥१३६।।
टीका-जो कोई तपोधन भेदरत्नत्रयरूप कारणकारणसमयसार से परिणत होते हुए केवलज्ञानदर्शनमय परमानंदलक्षण निज आत्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अवस्थानरूप निश्चयचारित्र, उससे सहित कारणसभयसाररूप निश्चयमोक्ष पथ में अपनी आत्मा को स्थापित करके निर्वाण भक्ति को करते हैं--परिपूर्ण त्याग भावना को भाते हैं - अनुभव करते हैं अर्थात् उसी निश्चयमोक्षमार्ग में स्थिर हो जाते हैं, वे ही महामुनि उस निमित्त से, नियम से, परनिमित्त