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नियमसार-प्राभृतम् ता निर्वाणभूमयोऽपि नमस्कृताः संति
णिव्वाणठाण जाणि वि, अइसवठाणाणि अइसये सहिया ।
संजादमधलोए, सव्वे सिरसा णमंसामि' । श्री पूज्यपाददेवेनापि प्रोक्तं निर्वाणभक्तोमाल्यानि वास्तुतिमयैः कुसुमैः सुवृधान्यावाय मानसकरैरभितः किरन्तः । पर्येमि आवृतियुता भगवन्निषद्याः संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः ॥ ननु कथमचेतनानि पार्थिवक्षेत्राणि स्सूयंते ? इति चेत्तदेव उच्यतेइक्षोविकाररसपृक्तगुणेन लोके,
पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यत् । तव्य पुण्यपुरुषैकषितानि नित्यं,
स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि ॥ तात्पर्यमेतत्-व्यवहारनयेन साधुभिः श्रावकैश्चापि नित्यं सिद्धादिपरमेष्ठिनस्तेषां चरणरजोभिः पवित्रितस्यानानि, तेषां च प्रतिकृतयोऽपि परमादरेण वन्दनीयाः
वे निर्वाण भूमियाँ भी नमस्कृत हैं---इस मनुष्य लोक में जो-जो भी निर्वाण स्थान हैं और अतिशय से युक्त जो-जो भी अतिशय तीर्थ स्थान हैं उन सभी को मैं शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
श्री पूज्यपाददेव ने भी निर्वाण भक्ति में कहा है--
वचनों की स्तुतिरूप पुष्पों से मालायें गू थकर उन्हें लेकर मनरूपी हाथों से चारों तरफ बिखेरते हुए-पुष्पांजलि करते हुए, हे भगवन् ! मैं आदर से युक्त होकर उन निषद्या स्थानों की प्रदक्षिणा करता हूँ और उनसे में यह प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे परमगति-सिद्धगति प्रदान करें।
शंका--ये अचेतन पृथ्वीकायिक क्षेत्र कैसे स्तुत किये जाते हैं ?
समाधान--यही बतलाते हैं-जिस प्रकार इस लोक में गन्ने के मधुर रस से सहित होकर गेहूँ या चावल का आटा भी बहुत मोठा हो जाता है उसी प्रकार पुण्यपुरुषों से नित्य सेवित वे अचेतन स्थान भी इस जगत् में पावन-पवित्र और पूज्य हो जाते हैं।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारनय से साधुओं को और श्रावकों को भी नित्य ही सिद्ध, आचार्य आदि परमेष्ठियों को, उनके चरण रज से पवित्र १. प्राकृतनिर्वाणभक्ति। २. संस्कृत निर्वाणभक्ति ।
३. संस्कृत निर्वाणभक्ति । ५०