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अथ परमभक्ति-अधिकारः कैलाशगिरिचंपापुरीपावापुरीऊर्जयंतसम्मेदगिरिप्रभृतिनिर्वाणभूमिभ्यः त्रिकरणशुद्धया नमोऽस्तु मे ।
___ अथ व्यवहारभक्तिमन्तरंणासंभावपरमभक्तिनामधेयो दशमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र सप्तगाथासूत्रेषु तावत् "सम्मत्तणाणचरणे" इत्यादि गाथामादौ कृत्वा गाथात्रयेण निर्वाणकारणभूतपरमनिर्वाणभक्तिः कथ्यते । तदनु "रायादीपरिहारे” इत्यादिना प्रारभ्य चतसृभिर्गाथाभिः परमयोगभक्तिलक्षणं च क्रियते । इत्थं द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूच्यते ।
अधूना निश्चयनिर्वाणभक्तिपर्यन्तं नेतुं सक्षमाया व्यवहारनिर्वाणभक्त्याः स्वरूपं कथयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः
सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुणइ सावगो समणो । तस्स दु णिव्वुदिभत्ती, होदि ति जिणेहि पण्णत्तं ॥५३४॥
कैलाशगिरि, चंपापुरी, पावापुरी, ऊर्जयंतगिरि और सम्मेदशिखर आदि निर्वाण क्षेत्रों को मन वचन कायपूर्वक मेरा नमोऽस्तु होवे ।
अब व्यवहार भक्ति के बिना नहीं होने वाला ऐसा परमभक्ति नाम का यह दसवां अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उसमें सात गाथाओं में सर्वप्रथम "समत्तणाणचरणे" इत्यादि गाथा को आदि में करके तोन गाथाओं द्वारा निर्वाण के लिये कारणभूत परमनिर्वाण भक्ति कही जायेगों। इसके बाद "रायादीपरिहारे" इत्यादि रूप से प्रारम्भ करके चार गाथाओं द्वारा परमयोगक्ति लक्षण और उसके स्वामी का लक्षण करेंगे । इस तरह दो अंतराधिकारों द्वारा यह समुदाय पातनिका सूचित की गई है।
_ अब श्रीकुन्दकुन्ददेव निश्चय निर्वाण-भक्ति पर्यंत ले जाने में समर्थ ऐसी व्यवहार निर्वाण-भक्ति का स्वरूप कहते हैं--
___ अन्वयार्थ--(सम्मत्तणाणचरणे) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में (जो सावगो समणो भत्ति कुण इ) जो श्रावक और श्रमण भक्ति करते हैं, (तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि) उनके ही निर्वाण भक्ति होती है । (त्ति जिणेहि पण्णत्त) ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।