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नियमसार-प्राभतम्
३८७ जो सावगो समणो-यः श्रावकः, पाक्षिकनैष्ठिकसाधकभेदेन विविधेषु, एकादशनिलयेषु वा कश्चित् अन्यतमः सागारः, ऋषियतिमुन्यनगारभेवेषु अन्यतमः कश्चित् श्रमणो वा, सम्मत्तणाणचरणे भत्तिं कुण इ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु भक्ति तेषामुपासनामाराधनां वा करोति, तस्स दु णिव्वु दिभत्ती होदि-तस्य श्रावकस्य मुनेश्च निर्वृतिभक्तिनिर्वाणभक्तिः भवति । ति जिणेहि पण्णत्तं-इति इत्थं श्रीजिनेन्द्रदेवैः प्रज्ञप्तम् इति जानीहि ।
इतो विस्तरः--"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति सूत्रवाक्यात् भेदाभेदरत्नत्रय एव नियंतेः मुक्तेः प्राप्त्युपायः । श्रावका एकदेशेन रत्नत्रयं परिपालयन्ति, अनगाराः त्रयोदशविधिधरणभाचरन्तः पूर्णरूपेण पालयितुं यतन्ते । परं तु अस्य पूर्णता अयोगिकेवलिनामन्त्यसमय संजायते, तदानीमेव समयमात्रेण नियति निर्वाणं ते अवाप्नुवन्ति । अत्र रत्नत्रयभक्तिकथनेन तस्यावरणं गृह्यते। किंच, भक्तिशब्देन अनुरागः, प्रोतिः, रुचिः, श्रद्धानं, सम्यक्त्वं च दृश्यते । . टीका–पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भंद से श्रावक तीन प्रकार के होते हैं। अथवा ग्यारह प्रतिमाओं के निमित्त से ग्यारह भेद रूप भी होते हैं। ऋषि, मुनि, यति और अनगार के भेद से श्रमण चार प्रकार के हैं। इनमें से कोई भी श्रावक और कोई भी मुनि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो भक्ति करते हैं, उस रत्नत्रय की उपासना या आराधना करते हैं, उन्हीं थावक या मुनि के निर्वृतिभक्ति अर्थात् निर्वाणभक्ति होती है । ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
- इसी का विस्तार करते हैं-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को एकता मोक्षमार्ग है । इस सूत्र वाक्य से भेदाभेदरत्नत्रय ही मुक्ति की प्राप्ति का उपाय है। श्रावक एकदेशरूप से रत्नत्रय का पालन करते हैं और अनगार मुनि तेह प्रकार के चारित्र का आचरण करते हुए पूर्णरूप से रत्नत्रय का पालन करने में प्रयत्नशील रहते हैं। किन्तु फिर भी इसको पूर्णता अयोगकेवली भगवान् के अन्त्य समय में होती है। उसी क्षण एक समय मात्र में निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर रत्नत्रय को भक्ति के कथन से उस रत्नत्रय का आचरण हो ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि भक्ति शब्द से अनुराग, प्रीति, रुचि, श्रद्धान और सम्यक्त्व भी सुने जाते हैं। १. तत्वार्धसूत्र अ० १, सूत्र १।