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नियमसार-प्राभूतम् उक्तं च पानंघाचार्येण
परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा ।
योगी स यस्य भजते स्तिमितान्तःकरणषट्चरणः ॥ अस्य परमसमाधिस्वरूपनिश्चयसामायिकस्य हेतुभूता क्षेत्रकालासनमुद्रादिपरिकरसामग्री अपि आगमानुकूला भवेत, तहि एव तत्परमानन्दलक्षणमध्यात्मध्यान समुत्पद्यते, नान्यथा। उक्तं च श्रीशुभचन्द्राचार्येण
कानिचित्तत्र शस्यन्ते, दूष्यन्ते कानिचित् पुनः । यातायनामिद्धशर्ष स्थानानि मुनिसत्तमः ॥ विकीर्यते मनः सद्यः स्थानदोषेण देहिनाम् । तवेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाय बंधुरम् ॥ म्लेच्छाधमजनैर्गुष्टं दृष्टभूपालपालितम् । पार्षडिमण्डलाकान्तं महामिथ्यात्वयासितम् ।। कि च क्षोभाय मोहाय, यद्विकाराय जायते ।
स्थानं तवपि मोक्तव्यम्, ध्यानविध्वंसशंकितैः ।। श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है
जिसका शांत अन्तःकरणरूपी भ्रमर समस्त विकल्पों रूप अन्य पुष्पों को छोड़कर केवल उत्कृष्ट आनन्दरूप कमल के रस का सेवन करता है, वह योगी कहा जाता है।
इस परमसमाधिस्वरूप निश्चय सामायिक के लिये क्षेत्र, काल, आसन, मुद्रा आदि परिकर सामग्री भी यदि आगम के अनुकूल होवें, तभी परमानंदलक्षण अध्यात्म ध्यान उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं।
श्री शुभचंद्राचार्य ने कहा है
मुनिपुंगवों ने ध्यान-अध्ययन की सिद्धि के लिये किन्हीं स्थानों को तो प्रशंसित किया है और किन्हीं को दूषित कहा है, क्योंकि स्थान के दोष से मनुष्यों का मन तत्काल ही विकृति को प्राप्त हो जाता है और वही मन अच्छे स्थान को प्राप्त कर स्वस्थता को प्राप्त कर लेता है। म्लेच्छ, अधम आदि जनों से सेवित, दुष्ट राजाओं से पालित, पाखंडी लोगों से व्याप्त और महामिथ्यात्व से सहित १. पद्मनंधिपंचविंशतिका, धर्मापदेशामृत, प्लोक १५३ । २. ज्ञानार्णक, अध्याय २७, अ० २८ ।