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नियमसार प्राभृतम्
흑녀숙 बिभ्यतः सततं निर्भया निःशंकमनसः सप्तविधभयानपि त्यक्त्वा निविकार निरंजनपरमानंदस्वरूपचिच्चैतन्यात्मनि चर्यां कुर्वाणाश्च मैथुन संज्ञाजन्यरागभावाद दूरीभूताः सहजपरम स्वभावनिजपरमात्मानमेव अनुभवन्ति तेषां वीतरागभावना बलेन जगति स्थिता ये केचित् जातविरोधिनः प्राणिनः तेऽपि शान्तिमुपयान्ति, अन्येषां का कथा ? तदेव दृश्यताम् -
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्रपोतम्, मार्जारी हंसबाल, प्रणधपरशा केफिकान्ता भुजंगीम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमवा जंसवोऽन्ये त्यजन्ति, free साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्' ॥ साम्यभावनापरिणताध्यात्मध्यानस्य ईदृक् प्रभावं ज्ञात्वा सामायिक
हुये सतत निर्भय निःशंक्रमना होकर सात प्रकार के भयों को भी छोड़कर निर्विकार निरंजन परमानंदस्वरूप चिच्चैतन्य आत्मा में चर्या को करते हुए मैथुनसंज्ञा से होने वाले रागभाव से दूर रहते हुए सहज परमस्वभाव निज परमात्मा का ही अनुभव करते हैं, उनकी वीतराग भावना के बल से जगत् में रहने वाले जो कोई जन्मजात विरोधी प्राणी हैं, वे भी शांति को प्राप्त हो जाते हैं, अन्य जीवों की तो बात ही क्या है ?
उसे ही देखिये
हरिणी सिंह के बालक को पुत्र की भावना से स्पर्श करती है, उसी प्रकार गाय शेरनी के बालक को, बिल्ली हंस के बच्चे को और मयूरनी सर्पों को बड़े प्रेम से स्पर्श करती है । जन्म से हो जिनके वैर रहते हैं, ऐसे प्राणी भी मदरहित होते हुये जन्मजात वैरभाव को भी छोड़ देते हैं । कब ? जब वे मोहरहित समताभाव में एकलीन तथा परमशांत ऐसे योगियों का आश्रय ले लेते हैं । अर्थात् परमशांत दिगम्बर योगियों के आस-पास में जन्मजात बैर को भी छोड़कर पशु-पक्षी बड़े प्रेम से विचरते रहते हैं ।
इस तरह साम्यभावना से परिणत अध्यात्म ध्यान का ऐसा प्रभाव जान कर आप सभी भव्य साधुओं को अपनी सामायिक निश्चयनय के आश्रित परमवीत
१. ज्ञानार्णव, पृ० २५० ।