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नियमसार - प्राभृतम्
पुनरपि किं किं त्याज्यं भवेदिति सूचयन्ति सूरिवर्या :
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जो दुर्गुछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसा ।
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तरस सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३२॥
जो दुगू छा भयं वेदं सव्वं णिच्चसा वज्जेदि - यः साधुः जुगुप्सां ग्लानि इहलोक - परलोकादिसप्तभयं कीपुंनपुंस्कनेोपनत्र वर्जयति । तस्स सामाइगं ठाई - तस्यैव निःशंकप्रवृत्तिसहितस्य महासाधोः सामायिकं साम्यभावना स्थायिरूपेण तिष्ठति । इदि केबलिसासणे-इत्थं केवलिनां सर्वज्ञदेवानां शासने प्रोक्तमस्ति ।
तद्यथा - ये महामुनयोऽन्यमुनीनां मलिन शरीरेषु मलमूत्रादिषु अथवा क्षुत्तृष्णाविपरोषहेषु, जुगुप्सां त्यक्त्वा निविचिकित्सागुणं पालयन्तः सहजविमलज्ञानदर्शनमयपरमपवित्र परमाह्लादस्वरूपमात्मानं ध्यायन्ति, तेषामामौषधिश्वेौषधिजल्लोषधिविप्रुषौषधि सर्वोषध्यादिनानाऋद्धयः समुत्पद्यन्ते । ये च सर्वपापेभ्यो
पुनरपि क्या-क्या त्याज्य हैं ? आचार्य देव ऐसा कहते हैं
अन्वयार्थ -- (जो दुगुंछा भयं वेदं सव्वं णिच्चसा वज्जेदि ) जो जुगुप्सा, भय और वेद इन सबको नित्यकाल छोड़ देते हैं, ( तस्य ठाई सामाइगं ) उनके स्थायी सामायिक होती है । ( इदि केवलसासणे ) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है ।
टीका --- जो साधु ग्लानि को, इहलोक, परलोक आदि सात भयों को और स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों के उदय से हुये रागभाव को सदाकाल छोड़ देते हैं, उन्हीं निःशंक प्रवृत्तिवाले महासाधु के सामायिक - साम्यभावना स्थायीरूप से होती है । ऐसा केवली भगवान् सर्वज्ञदेव के शासन में कहा गया है ।
उसे ही कहते हैं - जो महामुनि अन्य मुनियों के मलिन शरीर में मलमूत्रादि में तथा क्षुबा, तृषा आदि परीषहों में जुगुप्सा - ग्लानि भाव को छोड़कर निर्विचिकित्सा गुण का पालन करते हुए सहजत्रिमल, ज्ञानदर्शनमय, परम पवित्र, परमाह्लाद स्वरूप आत्मा को ध्याते हैं, उनके आमोषधि, क्ष्वेलोषधि, जल्लोषधि, विप्रुषौषधि और सर्वोषधि आदि अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये मुनि सर्व पापों से भयभीत