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नियमसार-प्राभृतम् रतिनामधेयान् नोकषायान् एषां कारणं च नित्यशः सततकालं वर्जयति, एभ्यः स्वमात्मानं रक्षति, तस्स सामाइगं ठाई-तस्यैव ध्यानैकलीनस्य मुनेः सामायिक साम्यपरिणतिर्वा स्थायि तिष्ठति । इदि केवलिसासणे-इत्थं केवलिनां जिनेश्वरदेवाधिदेवानां शासने कथितमस्ति ।
तद्यथा-ये केचित् आरम्भपरिग्रहासक्ता गृहस्था असिमषिकष्यादिक्रियासू प्रवर्तन्ते, तेषां ध्यानसिद्धिनिश्चयसामायिकनाम्ना कयं सम्भवेत् ? उक्तं च शुभचन्द्राचार्येण
खपुष्पमथवा शृंगं खरस्यापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिगुहाश्रमे । कथमेतत्तहि प्रोच्यते
जेतुं जन्मशतेनापि रागारिपताकिनी। बिना लागोगन सकिारि शक्यते ॥ शक्यते न वशीकतुं गुहिभिश्सपलं मनः ।
अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्धिः त्यस्ता गृहे स्थितिः ।। और इनके कारणों को सततकाल छोड़ देते हैं, इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करते हैं, उन ध्यान में एकलीन हुए मुनि के सामायिक-साम्यपरिणति या स्थायी सामायिक होता है, ऐसा केवली जिनेश्वर देवाधिदेव के शासन में कहा गया है ।
उसे ही कहते हैं--
जो कोई आरंभ और परिग्रह में आसक्त हए गृहस्थ असि, मषी, कृषि आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति कर रहे हैं, उनके निश्चय सामायिक नाम से ध्यान को सिद्धि कैसे संभव है ?
श्री शुभचंद्राचार्य ने कहा भी है
आकाश के पुष्प अथवा गधे के सींग हो सकता है, किंतु किसी देश या काल में गृहस्थाश्रम में रहने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती।
ऐसा क्यों ? सो ही बताते हैं--
इस रागादि शत्र की सेना को सैकड़ों जन्म में भो संयमशस्त्र के बिना कोई भी सज्जन जीत नहीं सकते, क्योंकि गृहस्थों द्वारा इस चंचल मन को वश में १. ज्ञानार्गव, गुणदोपविचाराधिकार । २. ज्ञानार्णव, गुणदोषविचाराधिकार ।