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नियमसार -प्राभूतम्
उपायेन ? स्वभाव पर्यायस्यापि करणोपायः श्रद्धातपोऽनुचरितव्यश्चेत्यभिप्राय: ।।१६ - १७ ।।
गतियों के जीवों का कुछ विस्तार दिया गया है । मूल में आचार्य ने मनुष्यों के कर्मभूमिज और भोगभूमिज ये दो भेद किये हैं । उनमें से कर्मभूमि १७० और १२६ हैं। प्रत्येक कर्मभूमि के बीचों-बीच एक-एक विजयार्ध पर्वत है, एक-एक आर्यखण्ड है और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं । प्रत्येक विजयार्ध की दक्षिण-उत्तर दोनों श्रेणियों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं । ये विजयार्ध १७० हैं, ऐसे ही आर्यखण्ड भी १७० हैं, इनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि होते रहते हैं । सर्वम्लेच्छ खण्ड ८५० हैं, इसमें म्लेच्छ मनुष्य हैं । भोगभूमि में ३० तो सुभोग भूमि हैं और ९६ कुभोग भूमि हैं । ढाई द्वीप में कुल इतने क्षेत्रों में ही मनुष्य रहते हैं । मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य न उत्पन्न होते हैं और न यहाँ से जा ही सकते हैं । ये सब विस्तार तिलोयपण्णत्त आदि से ज्ञातव्य है ।
तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार श्री अकलंकदेव ने मनुष्य के आर्य - म्लेच्छ ये दो भेद किये हैं । यहाँ पर आर्यों में भोगभूमि के जीव भी गर्भित हो जायेंगे और म्लेच्छों में ही आचार्य ने कुभोगभूमिज मनुष्यों को परिगणित कर उन्हें अंतद्वींपज म्लेच्छ कहा है । अतः इन दो भेदों में भी सभी मनुष्य अंतर्भूत हो जायेंगे । पुनः इस टीका में चारों अनुयोगों को पढ़कर किस अनुयोग से क्या लाभ लेना चाहिये, यह दिखाया है ।
प्रथमानुयोग से महापुरुषों का आदर्श सामने रहने से यह जीव राम, लक्ष्मण, सोता के ही उदाहरण लेना चाहेगा, न कि रावण का । करणानुयोग के अध्ययन से चारों गति का विस्तार, तीन लोक का विस्तार, नरक के दुःख आदि जानकर संसार से भय अवश्य होगा । चरणानुयोग के अध्ययन से चारित्र को ग्रहण करने की, उसे निरतिचार पालन करने की प्रेरणा मिलेगी । तब पुनः द्रव्यानुयोग का अध्ययन सार्थक होगा और आत्मा के स्वरूप का चितवन करते हुए उसमें तन्मयता लाने का प्रयत्न होगा। वह यदि आज इस भव में शक्य नहीं होगा तो "भावना भवनाशिनी" के अनुसार आज भावना हो करते रहने से अगले भव में सफलता अवश्य मिलेगी ।।१६-१७ ।।
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