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नियमसार-प्राभृतम् (अप्पसरूवालंबणभावेण टु सव्वभावपरिहारं ।
सक्कदि कादं जीवो, तम्हा झाणं हवे सर्व ॥११९॥
जीवो-विच्चैतन्यप्राणप्रधानः कश्चित् शुद्धोपयोगाभिमुखो महामुनिः । अप्पसरूवालंबणभावेण-स्वशद्धात्मस्वरूपस्यालंबनभावेन । दु सब्वभावपरिहारं का, सक्कदि-खलु निश्चयेन सर्वरागादिविभावभावानां परिहारं कर्तुं शक्नोति । तम्हा सवं झाणं हवे-तस्माद हेतोः सर्वं सर्वस्वं सारभूतं ध्यानमध्यात्मध्यानमेव भवेत् ।
तद्यथा-एकान्तविपरोतविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्याभायो मिथ्यात्वगुणस्थानपर्यन्तम् । पुनः अप्रत्याख्यानावरणकषायजन्यासंयमभावश्चतुर्थगुणस्थानं यावत् । इतः परे प्रत्याख्यानावरणकषायजनितविरताविरतभावः पंचमगुणस्थानं यावत् । ततः परं संज्वलनकषायहास्यादिनोकषायजनितरागादिविकारभावा व्यक्तरूपेण षष्ठगुणस्थानपर्यन्तमव्यक्तरूपेण च सूक्मसाम्परायं यावत् । एषां रागद्वषादिविभावभावानां परिहारो धर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेनैव कर्तुं शक्यते । ततो ध्यानमेव निश्चयप्रायश्चित्तं भवितुमर्हति ।
___ अन्वयार्थ (अप्पसरूवालंबणभावेण दु) आत्मस्वरूप के अवलंबनरूप भाव से (जोवो सबभावपरिहारं कादं सक्कदि) यह जीव सर्वभावों का परिहार करने में समर्थ हो जाता है । (तम्हा झाणं सव्वं हबे) इसलिये ध्यान ही सर्वस्व है)
टीका-चिच्चैतन्यप्राण है प्रधान जिसको, ऐसे कोई शुद्धोपयोगी महामुनि अपने शुद्ध आत्मा के स्वरूप के आलंबनरूप भाव से निश्चित ही सर्व रागादि भावों का परिहार कर सकते हैं । इसलिये सर्वस्व सारभूत अध्यात्मध्यान हो है ।
उसे ही कहते हैं--एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पाँचरूपोंवाला मिथ्यात्व भाव मिथ्यात्व नामक पहले गुणस्थान पर्यंत ही रहता है । पुनः अप्रत्याख्यानावरण कषायों से उत्पन्न हुआ असंघम भाव चौथे गुणस्थान तक रहता है । इसके आगे प्रत्याख्यानावरण, कषाय से उत्पन्न विरताविरत भाव पाँचवें गुणस्थान तक रहता है। इसके ऊपर संज्वलन कषाय और हास्य आदि नवनोकषायों के उदय से हुये रागादि विकार भाव व्यक्त रूप से छठे गुणस्थान तक रहते हैं और अव्यक्त रूप से सूक्ष्म सांपराय नामक दसवें गुणस्थान तक रहते हैं । इन सभी राग द्वेष आदि विभाव भावों का परिहार धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान के बल से ही करना शक्य है । इसलिये ध्यान ही निश्चय प्रायश्चित्त हो सकता है ।