________________
३४६
नियमसार-प्रामृतम् यन्ति, ते कायबलद्धि समुत्पाद्य बालिमुनिवत् पादांगुष्ठेनैवाष्टापदपर्वतं कम्पयितुं समर्था यन्ति।
तात्पर्यमेतत्-मनोवचनकायनिरोधं कृत्वा योगमुद्रया जिनमुत्रया वा सप्तविशतिप्रभृतिउच्छ्वासमहामन्त्रानुस्मरणं व्यवहारकायोत्सर्गः कथ्यते ।
___ व्यवहारसाधनबलेन स्थिरयोगेन सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजात्मतस्वस्य ध्यानं निश्चयकायोत्सर्ग उच्यते । उभयकायोत्सर्गबलेनैव स्वात्मसिद्धिर्भवेदिति ज्ञात्वा कायादि-ममत्वं त्यक्त्वा नित्यं कायोत्सर्गस्याभ्यासः कर्तव्यः ॥१२१॥
यस्य चरणयोरहिभिः बल्मीकं निमितम, वृश्चिकसादयश्च कायस्योपरि आरोहणावरोहणः क्रोडां चक्रुः. आ संवत्सरं प्रतिमायोगमास्थाय निदातन्द्राक्षुत्पिपासादिविजयिने तस्मै श्रीबाहुबलिस्वामिने नमः ।
एवं "अप्पसरूवालंबण" इत्यादिना निश्चयशुद्धात्मतत्त्वध्यानमेय प्रायविचत्तम् इति प्रतिपाद्य, "सुहअसुहबयणरयणं' इत्यादिना नियमशब्दवाच्यशुद्धा
का ध्यान करते हैं, वे कायबल ऋद्धि को उत्पन्न करके बालि मुनिराज के समान अपने पैर के अंगठे से ही कैलाश पर्वत को हिलाने में समर्थ हो जाते हैं। यहाँ तात्पर्य यह है कि मन, वचन, काय का निरोध करके योगमुद्रा अथवा जिनमुद्रा से सत्ताईस आदि उच्छ्वासों में जो महामंत्र का अनुस्मरण-जाप्य किया जाता है वह व्यवहार कायोत्सर्ग कहलाता है । व्यवहार साधन के बल से स्थिर योग के द्वारा सहज विमल केवलज्ञानदर्शन स्वरूप निज आत्मतत्त्व का जो ध्यान है, वह निश्चयकायोत्सर्ग है । इन दोनों प्रकार के कायोत्सर्ग के बल से ही स्वात्मा की सिद्धि होती है, ऐसा जानकर कायादि से ममत्व छोड़कर नित्य ही कायोत्सर्ग का अभ्यास करते रहना चाहिये ।।१२१॥
जिनके चरणों में सर्पो ने बल्मीक बना लिये थे, बिच्छ, सादिक जिसके शरीर पर चढ़ते, उतरते हुये क्रीड़ा किया करते थे। एक वर्ष पर्यंत प्रतिमायोग को धारण किये हुये, निद्रा, तंद्रा भूख-प्यास आदि के विजयी उन श्री बाहुबली स्वामी को मेरा नमस्कार होवे ।
इस तरह "अप्पसरूवालबण' इत्यादि रूप से निश्चय शुद्धात्म तत्त्व का ध्यान ही प्रायश्चित्त है, ऐसा प्रतिपादन करके, “सुहअसुबयणरयणं' इत्यादि रूप से