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नियमसार-प्रभूतम्
इति गाथाभिप्रायं ज्ञात्वा धर्माद्धि व तरणं तं धृत्वा प्रयत्नपूर्वकं निजचर्यानुरूपो ध्यानाभ्यासो भवद्भिरपि कर्त्तव्यः ॥ १२३॥ श्रमणस्य का कीदृशी चर्या कार्यकारिणी भवतीति कथयन्त्या चार्यदेवा:---
किं कादि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो । अज्झयणमोणपहूदी समदारहियस्स समणस्स ॥ १२४॥
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समदार हियस्स समणस्स - सुखदुःखजीवनमरणमित्रामित्रादिषु रागद्वेषपरिणतिरहितो भावः समतापरिणामस्तेन रहितस्य दिग्वस्त्रधारिणः श्रमणस्य । वणवासी कि काहदि-वनेषु शून्यस्थानेषु पर्वतचलिकागुफाश्मशानादिषु निवासः किं करिष्यति ? अन्यश्च कायकिलेसो- वृक्षमूलाभ्रावकाशातापन सूर्याभिमुखयोगाः कुक्कुटासन मकरासनवीरासनाविभिः फायस्य क्लेशकारीणि तपांसि च, तत्सर्वोऽपि कायक्लेश उच्यते । सोऽपि किं करिष्यति ? तथा च विचित्तउववासी - विश्वित्रोपवासः,
भावार्थ --- सातवें गुणस्थान में दो भेद हैं - स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। आजकल के मुनि स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थानी हो सकते हैं, द्वितीय भेदवाले नहीं हो सकते ॥ १२३ ॥
श्रमण की कब और कैसी चर्या कार्यकारिणी होती है, इस बात को आचार्यदेव कहते हैं---
काय -
अन्वयार्थ - (समदा रहियस्स समणस्स ) समताभाव से रहित मुनि के लिये ( वणवास कायकिलेस विचित्तउववासो अज्झयणमोण हुदी ) वन में रहना, क्लेश करना, अनेक उपवास करना, अध्ययन करना और मौन आदि करना, (कि काहदि) ये सब क्या कर सकेंगे ? ।
टीका - सुख-दुःख, जीवन-मरण, मित्र और शत्रु आदि में राग-द्वेष परिणति रहित भाव समताभाव है, उससे रहित दिगंबर मुनि के लिये वन में, शून्य स्थान में, पर्वत के शिखर, गुफा, श्मशान आदि में निवास करना क्या करेगा ? अन्य भी वृक्षमूल, अभ्रावकाश, आतापन, और सूर्याभिमुख योग, कुक्कुटासन, मकरासन और वीरासन आदि के द्वारा काय को क्लेश करने वाले ऐसे तप होते हैं, वे सभी 'कायक्लेश' कहलाते हैं । वह कायक्लेश भी क्या करेगा ? सर्वतोभद्र कनकावली, मेरु