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नियमसार-प्राभूतम् __ सव्व सावज्जे विरदो--यः कश्चिद् भव्योत्तमः सर्वसायधयोगाद् विरतो भवेत् । पुनः कथंभूतः ? तिगुत्तो-त्रिभिर्मनोवाक्कायगुप्तिभिगुप्तो रक्षितः सहितो व्यवहारनिश्चयगुप्तियुक्तो भवेत् । पुनरपि कथंभूतो भवेत् ? पिहिदिदिओ-पिहितेन्द्रियः फूर्मवत्संकोचितकरणग्रामश्च भवेत् । तस्स सामाइग ठाई-तस्य निर्वस्त्रमहामुनेरेव स्थायि सामायिक समताभायश्च सिद्धचेत्, न चान्यस्य परिग्रहारंभासत्त.स्य साधोः । इदं क्व वणितम् ? इदि केवलिसासणे-इति वचनं केवलिनाम् अर्हपता शासने गौतमप्रभृत्याचार्यपरमेष्ठिभिः कथितं वर्तते ।
तथा- कवित् कर्मभूमिजमनुष्या; संसारशरीभोगेभ्यो निविण्णाः सर्वारम्भपरिग्रहं त्यक्त्वा गुरूणां पादमूले दैगम्बरों दीक्षां गृहीत्वाऽष्टाविंशतिमूलगुणान् आदति, त एव मूलगुणान्तर्गतसमतानामावश्यकत्रियां परिपालयन्ति ।
अस्या आवश्यकक्रियाया लक्षणं मूलाचारे कथितमास्ते--"समदा-समस्य भावः समता रागद्वेषादिरहितत्वं त्रिकालपंचनमस्कारकरणं वा ।" के सामायिक स्थायि होता है । (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है।
टीका-जो कोई भव्योत्तम सर्वसावध योग से विरत हैं, मन, वचन, काय से गुप्तियों से गप्त हैं-रक्षित हैं, सहित हैं व्यवहार निश्चय गुप्ति से युक्त हैं । कछुये के समान अपनी इन्द्रियों को संकुचित कर लेने से जितेन्द्रिय है, उन्हीं दिगम्बर मुनि के स्थायी सामायिक और समताभाव सिद्ध होता है, अन्य परिग्रही, आरंभी साधु के वह समताभाव नहीं होता। यह कथन केवली अर्हन्त भगवान के शासन में गौतमस्वामी आदि आचार्यपरमेष्ठियों ने किया है।
उसी को कहते हैं--जो कोई कर्मभूमिज मनुष्य संसार शरीर, भोगों से विरक्त होते हुये सर्वारम्भ परिग्रह को छोड़कर गुरुओं के पादमूल में दैगम्बरो दीक्षा को लेकर अट्ठाईस मूल गुणों को धारण कर लेते हैं, वे ही मूल गुणों के अन्तर्गत समता नाम की आवश्यक क्रिया का पालन करते हैं।
इस आवश्यक क्रिया का लक्षण मूलाचार में कहा है- समता-सम का भाव समता है-रागद्वेषादि से रहित होना, अथवा तीनों संध्या कालों में पंचनमस्कार क्रिया रूप सामायिक करना समता क्रिया है। १. मूलाचार गाथा २२, की टीका।