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नियमसार-प्राभृतम् पेक्षया द्वेषोऽनिष्टकरोऽशोभनश्च लक्ष्यते, किंतु सर्वानर्थपरंपराणां मूलं राग एव । उक्तं च श्रीशुभचन्द्राचार्येण--
यत्र रागः पदं धत्ते, द्वेषस्तत्रेति निश्चयः ।
उभावेतो समालंब्य, विक्रमत्यधिकं मनः' ।। येन सह यस्मिन् वस्तुनि वा रामोऽस्ति, कामपि प्रतिकूलतामासाद्य तेन सह तत्रैव वा द्वषः समुत्पद्यते, सुकौशलमुनेर्जननीसहदेवीवत् । तस्याः स्वपुत्रसकौशलं प्रति अधिक स्नेह आसीत्, तेन दीक्षायां गृहीतायां सत्यां सा आर्तध्यानेन मृत्वा व्याघ्री भत्वा तमेवाभक्षयत् । किंच
रागद्वेषाधिकल्लोलेरलोल यम्ममोजलम् ।
स पश्यत्यारमनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ।। यदि कदाचिद् रागद्वेषौ समुत्पयेतां तहि किं कर्तव्यम् ? तस्योपायं दर्शयन्ति आचार्यदेवाः--
निश्चित है । पुनः यह मन इन दोनों का अवलंबन लेकर अधिक विकार भाव को प्राप्त हो जाता है।
जिसके साथ अथवा जिस वस्तु में राग है, किसो भी प्रतिकुलता को प्राप्त करके उसी के साथ अथवा उसी वस्तु में द्वेष उत्पन्न हो जाता है, सुकौशल मुनि को माता सहदेवी के समान ! उस सहदेवो का अपने पुत्र सुकौशल के प्रति बहुत ही स्नेह था, पुन: उस पुत्र के दीक्षा ले लेने पर वह आर्तध्यान से मरकर व्याघ्री होकर उसी पुत्र को खाने लगी।
दूसरी बात यह है कि राग-द्वेष आदि लहरों से जिनका मनरूपी जल चंचल नहीं हुआ है, वे ही आत्मा के तत्त्व को वास्तविक स्वरूप को देख लेते हैं, उस आत्मतत्त्व को चंचल चित्तबाले नहीं देख सकते हैं।
__ यदि कदाचित् ये राग-द्वेष उत्पन्न होवें तो क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री आचार्यदेव उपाय दिखलाते हैं
१. ज्ञानार्णव, पृ० १४३ । २. समाधिशतक, श्लोक ३५ ।