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नियमसार-प्रांभृतम्
३७३ स्थायिसामायिकार्य पुनः नि कि वर्जनीयं भवेदिति प्रश्ने सति प्रत्युसरयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः--
जो दु पुण्णं च पावं च, भावं धज्जेदि निध्यता। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ।।१३०॥
जो दु पुण्णं च पात्रं च भावं णिच्चसा वज्जेदि-यः परमतपोधनो निर्विकल्पसमाधिस्थितः सन् पुण्यबंधकारणभूतामावश्यकादिक्रियां देधवंदनागरुभक्त्यादिरूपा पुण्यमयों च, पापबंधकारणभूतां हिंसाऽसत्याविपापक्रियामिष्टवियोगानिष्टसंयोगादिजन्यमार्तध्यानाविकं च शुभाशुभभावं नित्यशः निरन्तरं वर्जयति, तस्स सामाइगं हैं, वहाँ दो सौ योजन तक की पृथ्वी स्वर्ग के सदृश सर्व प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाती है और उनके निकट रहने वाले राजा निर्वैर हो जाते हैं। अत: यह उदाहरण सामान्य मुनियों के लिये घटित ही नहीं हो सकता है, उन्हें संघ में रहते हुए कभी न कभी आर्त ध्यान का प्रसंग आ भी जाता है ॥१२९।।
स्थायी सामायिक के लिये पुनः क्या-क्या छोड़ना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव प्रत्युत्तर देते हैं
अन्वयार्थ-(जो दु पुण्णं च पावं च भावं णिच्चसा वज्जेदि) जो पुण्य और पाप रूप भाव को नित्य ही छोड़ देते हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उन्हीं के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है।
टीका-जो परम तपोधन निर्विकल्प समाधि में स्थित होते हुए पुण्यबंध के लिये कारणभूत और पुण्यमयी ऐसी देववंदना गुरुभक्ति आदिरूप छह आवश्यक क्रियाओं को तथा पापबंध के लिये कारणभूत हिंसा, झूठ आदि पाप क्रियाओं को और इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि से उत्पन्न हुए आर्त ध्यान आदि, इन शुभ
१. रावणे जीवति प्राप्ती यदि स्यात् स महामुनिः ।
लक्ष्मणेन समं प्रीनिर्माता स्यात्तस्य पुष्कला ॥५४॥ तिष्ठति मुनयो यस्मिन् देशे परमलब्धयः । तथा केवलिनस्तत्र योजनानां शतव्यम् ।।५५॥ पृथिवी स्वासकाशा जायते निरुपद्रवा । वैरानुबंधमुक्ताश्च भवति निकटे नृपाः ।।१६।। (पद्मपुराण, पर्व ७८)