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नियमसार-प्रामृतम् यस्य मनो विकृति न लभेत तस्य स्थापिसामायिक भवेदिति कथयन्ति श्री कुन्दकुन्ददेवाः
जस्स रागो दु दोसो दु, विगडि ण जणेइ दु ।
तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२८॥ जस्स शगो दु दोसो दु विगडि दु ण जणेइ-यस्य वीतरागचारित्राविनाभाविपरमोपेक्षालक्षणसंयमपरिणामस्य संयमिनः रागभावो द्वेषभावच विकृति न जनयति, इमौ भावो न उत्पयेते, तस्स ठाई सामाइगं-तस्य मुनेः स्थायि सामायिक भवति । इदि केवलिसासणे- इति एवं केवलिनां भगवतां संप्रवाये प्रोक्तमस्ति ।
तयथा--रागः प्रीतिपरिणामो द्वषोऽनोतिपरिणामश्च । इह लोके रागा
जिसका मन विकृति को नहीं प्राप्त होता है, उसके स्थायी सामायिक होती है, ऐसा श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं
अन्वयार्थ---(जस्स रागो दु दोसो दु विगडि दु ण जणेइ) जिसके राग और द्वेष विकृति को नहीं उत्पन्न करते हैं, (तस्स ठाई सामाइगं) उसो मुनि के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है।
टीका—जो संयमी वीतराग चारित्र के बिना न होने वाले ऐसे उपेक्षा लक्षण संयम से परिणत हो रहे हैं, उन्हों के रागभाव और द्वेषभाव विकृति को उत्पन्न नहीं करते हैं, अर्थात् ये राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते हैं, उन्हीं मुनि के स्थायी सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् के सम्प्रदाय में कहा है। - उसी को कहते हैं--राग अर्थात् प्रोति परिणाम और द्वेष अर्थात् अप्रीति परिणाम । इस संसार में राग की अपेक्षा द्वेष अधिक अनिष्टकारी, अशोभन दिखता है, किन्तु सम्पूर्ण अनर्थ की परम्परा का मूलकारण राग ही है ।
श्री शुभचंद्र आचार्य ने कहा भी है-- जहाँ पर राग अपना पैर रखता है, वहाँ पर द्वेष आ ही जाता है, यह