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नियमसार-प्रामृतम्
३५१ शक्नुवन्ति । अतो ज्ञायते, नैषा प्रवृत्तिः अकार्यकारिण्येव सर्वथा । तथापि येन समभावेन निराकुलत्य निर्विकल्पध्यानं च सिद्धधति तस्यैवाभ्यासोऽनवरतं विधेयः । उक्तं चामितगतिसूरिणा
दुखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्ग, योगे वियोगे भुवने वने वा।
निराकृताशेगमा बुद्धे, पं मनो मेऽस्तु पागण मग " ___एवं "वयणोच्चारण'' इत्यादिना परमसमाधिलक्षणप्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते । तदनु "कि काहदि" इत्यादिना समतारहितस्य मुनेः वनवासाविक्रियामोक्षपुरुषार्थकार्यकृन्नेति प्रतिपादनपरत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति त्रिभिः सूत्रः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१२४॥ समभावोऽयं स्थायिरूपेण कस्य भवेदिति प्रश्ने सति उत्तरयन्त्याचार्यबर्याः
विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥१२५॥
सर्वथा अकार्यकारी ही नहीं है, फिर भी जिस समभाव से निराकुल और निर्विकल्प ध्यान सिद्ध होता है, उसी का अभ्यास हमेशा करते रहना चाहिए।
अमितगति आचार्य ने कहा भी है
दुःख-सुख में, वैरी में, बंधुओं के समूह में, संयोग और वियोग में तथा मकान अथवा वन में हे नाथ ! संपूर्ण ममत्व बुद्धि से रहित होकर मेरा मन समभाव धारण
इस प्रकार "वयणोच्चारण" इत्यादिरूप से परम समाधि के लक्षण को प्रतिपादन करने वाले दो सत्र हये हैं । इसके बाद "कि काहदि इत्यादि रूप से समतारहित मुनि के वनवासादि क्रियायें मोक्ष पुरुषार्थ रूप कार्य को करनेवाली नहीं हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हुये एक सूत्र हुआ है। इस तरह तीन सूत्रों द्वारा पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ है ।।१२४॥
__ यह समभाव स्थायीरूप से किनके होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं- अन्वयार्थ--(सव्वसावज्जे विरदो) जो सर्वसावध से विरक्त हैं, (तिगुत्तो पिहिदिदिओ) तीन गुप्ति से सहित और जितेन्द्रिय हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उन्हों