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नियमसार प्राभृतम्
एतेषु सर्वशरीरधारिषु यस्य शत्रुमित्रभावो नास्ति, अनुकम्पाभावो वास्ति, तस्यैव शश्वत्सामायिकं विद्यते ।
उक्तं च पद्मविसूरिणा --
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संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभूतः के के न पित्रादयो जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहताः । सामपि तो मनिहारी जमारादेषु ध्रुवं तारं प्रतिहन्ति त बहुश: संस्कारतो तु क्रुधः ॥ त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सरुजोऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना न कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः । निःशेषव्रतशील निर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं जन्तोर्जीवितवानस्त्रिभुवने
सर्वप्रदानं लघु ॥
अर्थात् एकेंद्रियों में पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक जीव सत्त्व कहे जाते हैं । इन सभी शरीरधारी जीवों में जिनमुनि को शत्रु-मित्र भाव नहीं है, अथवा दया भाव विद्यमान है, उन्हीं परमशांत मुनि के सदाकाल सामायिक रहता है।
श्री पद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है-
संसार में चिरकाल से भ्रमण
करते हुये प्राणी के कौन-कौन से जीव पिता, माता व भाई आदि नहीं हुये हैं ? अर्थात् सभी जीव सभी सम्बन्ध से अपने हो चुके हैं । अतएव जन उन जीवों के घात में प्रवृत्त हुआ प्राणी निश्चय से सबको मारता है-- आश्चर्य तो यह है कि वह अपने आपका भी घात कर लेता है । क्योंकि इस भव में जो दूसरे के द्वारा मारा गया है, वह निश्चय से भवांतरों में क्रोध की वासना से अपने उस घातक का बहुत बार घात करता है, यह बड़े खेद की बात है ।
रोगी प्राणी को भी तीनों लोकों की प्रभुता की अपेक्षा एकमात्र अपना जीवन ही प्रिय है । कारण कि वह सोचता है कि जीवन के नष्ट हो जाने पर वह तीनों लोकों का साम्राज्य भला किसको प्राप्त होगा ? निश्चित ही यह जीवनदान समस्त व्रत, शील, एवं अन्यान्य गुणों का आधारभूत है, अतएव लोक में जीव के जीवनदान की अपेक्षा अन्य समस्त सम्पत्ति आदि का दान भी तुच्छ माना गया है । अभिप्राय यही हुआ कि जीवनदान अभयदान ही सर्व दानों में श्रेष्ठ है ।
१. पद्मनंदिपंचविशतिका, धर्मोपदेशामृत, स्लोक ९-१० ।